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________________ तत्त्या चिन्तामणिः तनिचिः पुनस्तत्कारणमिथ्यादर्शनादीनां सम्यग्दर्शनादिमविपक्षभावनासात्मीभावात् कस्यचिदुत्पद्यत इति समर्थयिष्यमाणत्वात् तसिद्धिः। आए सिटी लिउन काँगे उन्या भ्रमणकी निवृत्ति भला किससे होगी ! बताओ। इसका उत्तर यह है कि उन कर्मोंके कारण हो रहे मिथ्यादर्शन, कुज्ञान, कषाय और असंयम आदिक विरोधी माने गये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, और तपःकी आमाके साथ तादात्म्यसम्बंधसे समरसरूप होनेवाली भावनाके बलसे किसी आत्माके कौकी निवृत्ति होना उत्पन्न होजाता है, इस बातको हम मविष्यों समर्थन कर देखेंगे । यों अबतक पटीयंत्रको प्रतिक रोकनेका कारण अरहटके भ्रमणको निवृत्ति है और आहटके भ्रमणको रोकनेका कारण बैलके घूमनेकी निवृति होना है । दाष्टीतम इसकी सिद्धि इस प्रकार करलेना कि शरीर और मनःसबंधी भनेक दुःखोंकी निवृत्तिका कारण चतुतिमै भ्रमणकी निवृत्ति है और चतुर्गतिके भ्रमणकी निवृत्तिका कारण ज्ञानावरण मादि कर्मोके उदय पारिभ्रमणकी निवृत्ति है और ज्ञानावरण आदि कर्मोंका नाश तो रखत्रय या चार आराधनाओंसे होजाता है। प्रकृतहेतोःकुम्भकारचक्रादिभ्रान्त्यानैकान्ता, स्वकारणस्य कुम्भकारस्य व्यापारस्य निवृत्तावपि तदनिवृत्तिदर्शनात् , इति चेत् - कोई शंका करता है कि कारणके भ्रमणकी निवृत्ति होजानेसे कार्यके भ्रमणकी निवृत्तिको सिद्ध करनेवाले प्रकरण प्राप्त हुये हेतुका कुम्हार के चक्र आदिकी भ्रांतिसे व्यभिचार है । क्योंकि देखा जाता है कि चक्रके अपने घूमनेका कारण माने गये कुलालके हस्तव्यापारकी निवृत्ति हो जाने पर भी बह चक्रका घूमना निवृत्त नहीं होता है । भावार्थ-कुम्हारके एक बार घुमानेपर पांच या वश पल पीछेतक भी चाक घूमता रहता है। ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि न कुम्भकारचक्रादिभ्रांत्यानैकान्तसम्भवः । तत्कारणस्य वेगस्य भावे तस्याः समुद्भवात् ॥ २५५ ॥ कुम्हारके पक या बच्चों के खेलनेका भौरा आदिके भ्रमण द्वारा हमारे कारण निवृतिरूप हेतृका व्यभिचार होना सम्भव नहीं है । क्योंकि उस कुम्हारके चाक और बनेके भौंरा घूमनेका कारण उनमें भर दिया गया वेग है । कुम्हार और बच्चेका व्यापार साक्षात् कारण नहीं है । जबतक वेग रहेगा तबतक वह चक्र और भौराका भ्रमण उत्पन्न होता रहेगा। न हि सर्वाचक्रादिम्रान्तिः कुंभकारवर व्यापारकारणिका, प्रथमाया एव तस्यास्तथाभावात् , उचरोचरभ्रातः पूर्वपूर्वभ्रांत्याहितवेगकृतत्वावलोकनात , न चोचरा कातिः स्वकारणस्य वेगस्यामाचे समद्भवति, तद्भाव एव तस्याः समुद्भवदर्शनात् ततो न तया देवोयभिचारः।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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