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________________ सस्वाचिन्तामणिः न चेदमसिद्ध साधनम् भेदसिद्ध करनेमें दिया गया पूर्वके लाम होनेपर भी उत्तरवर्ती गुणकी विद्यमानताका अनियमपनरूप हेतु मसिद्ध नहीं है अर्थात् तीनी रत्लस्वरूप मान तु रह पाता है। अतः स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास नहीं है। तत्त्वश्रद्धानलाभे हि विशिष्टं श्रुतमाप्यते। नावश्यं नापि तल्लाभे यथाख्यातममोहकम् ॥ ६७ ॥ तत्त्वोका श्रद्धान करना स्वरूप सम्यग्दर्शनके लाभ हो जानेपर निश्चयकर सर्वोत्तम द्वादशांग श्रुतज्ञान अवश्य प्राप्त हो ही जावे यह नियम नहीं है। और उस सम्यग्ज्ञानके लाम हो जाने पर भी मोहनीयकर्मकी समासे रहित और आनुषंगिक दोषोंसे रहित पूर्ण यथाख्यातचारित्र मी अवश्य पाप्त हो ही जाये ऐसा निमय नहीं है। होवे भी और न भी होवे, यो विकल्पनीय है। नो विरुद्धधर्माध्यासेऽपि दर्शनादीनां सर्वथैकत्वं युक्तमतिप्रसंगात्। न च स्याद्वादिनः किञ्चिद्विरुद्धधर्माधिकरणं सर्वथैकमस्ति, तस्य कथञ्चिद्भिनरूपत्वव्यवस्थितेः। न च सत्त्वादयो धर्मा निषिवोघोपदर्शिताः कचिदेकत्रापि विरुद्धा, येन विरुद्धधर्माधिकरणमकं वस्तु परमार्थता न सिध्येत् । अनुपलम्भसाधनत्वात् सर्वत्र विरोधस्यान्यथा स्वभावेनापि स्वभाववतो विरोधानुषंगा । ततो न विरुद्धधर्माध्यासो व्यभिचारी। इस प्रकार अनेक विरुद्ध भोके आधार होते हुए भी दर्शन आदिकोंको सर्वथा एकपना मानना युक्त नहीं है। यदि ऐसा मानोगे तो अतिप्रसंग हो जावेगा । अर्थात् रूपसहितपना और ज्ञानसहितपना इन विरुद्ध धर्मोके होते हुए भी पुद्गल और जीवद्रव्य भी एक हो जावेगे । तथा अनेक विरुद्ध कार्योको करनेवाले घर, पट, खम्म आदि मी एक पदार्थ बन जावेगे । हम स्याद्वादियोंके यहां विरुद्ध धोका आधारभूत कोई भी पदार्थ सर्व प्रकारोंसे एक नहीं माना गया है। उसको कथञ्चित् भिन्नरूपपना ही युक्ति, आगमों द्वारा सिद्ध किया जाता है। एक अमिमें भी यदि दाहकत्व, पाचकत्व मादि अनेक धर्म है तो वह भी भिन्न भिन्न अनेक स्वमाववाली है, सर्वथा एक नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि वस्तुतः विचारा जावे तो अभिमें विद्यमान हो रहे दाहकत्व, पाचकत्व आदि धर्म विरुद्ध हैं ही नहीं, उनमें सहानवस्थान ( एक साथ न रहना) रूप विरोधका लक्षण नहीं घटता है । रूपवत्त्व और ज्ञानवत्त्व तथा गतिहेतृत्व और खिसिहेतुल एवं आकय॑स्व और आकर्षकत्ल आदि अवश्य विरुद्ध धर्म है । जो कि एक द्रव्यमै नहीं ठहरपति हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, आदि धर्म किसी एक पदार्थ में रहते हुये भी बाधारहित ज्ञानके द्वारा देखे जा रहे हैं। अतः विरुद्ध नहीं है । जीवद्रव्य तीनों कालमै विधमान है । वह अनेक गुणोंका निवास है। वह प्रतिक्षण परिणमन करता है जिससे कि विरुद्ध सरीखे दीखते हुए अनेक धर्मोका अधिकरण एक वस्तु यथार्थरूपसे सिद्ध न होती, अर्थात् उक्त अनेक अविरुद्ध धमौकी आधार मानी गयी
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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