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सत्यार्थचिन्तामावः
नायो किमेकेन खभावेन पुमान् स्वस्वभावैः संबध्यते नानास्वभावैवी ? प्रथमकल्पनाया सर्वस्वभावानामेकतापचिः, द्वितीयकल्पनायां ततः स्वभावानामभेदे च स एव दोषा, अनिवृरा (थ) पर्यनुयोगा, इत्यनवस्थानात्, कृतोऽनन्तपर्यायतिरास्मा व्यवतिछतेति केचित् । ... अभी तक बौद्ध कहते जा रहे हैं कि द्वितीयपक्ष अनुसार यदि आप जैनजन फिर अनेक समावोंसे अनंत पर्यायोंको आत्मा व्याप्त कर लेगा, ऐसा मानेगे तो हम बौद्ध पूंछते हैं कि ये अनेक स्वभाव मामासे अभिन्न हैं या भिन्न हैं !
___ यदि अनेक स्वभावोंका उस आत्माके साथ अभेद मानोगे तो स्वभावोंके समान वह आमा भी अनेक हो जावेंगी, अथवा आत्माके समान उन स्वभावोंको मी एकपनेका प्रसंग होगा । अभेदमे ऐसा ही होता है।
यदि दूसरा पक्ष लोगे यानी उस भात्मासे उसके स्वभावोंको भिन्न मानोगे तो आस्माका और स्वभावोंका संबंध सिद्ध न होगा। संघ सिद्ध न होनेसे " आत्माके ये स्वभाव है।" इस मकारके लोकव्यवहारकी व्यवस्था न होसकेगी क्योंकि सब और बिध्यके समान सर्वथा भेद होनेपर संबंध नहीं बनता है और सह्य पर्वतका यह बिन्ध्य पर्वत है इस प्रकार व्यवहार भी नहीं होता है । अतः संबंधवाचक षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त नहीं हो सकती है।
__ यदि स्वभावों के साथ आत्माके संबंधकी कल्पना करोगे तो हम पूंछसे हैं कि आत्मा क्या अपने अनेक स्वभावों के साथ एक स्वभावसे सम्बन्षित होगा अथवा अपने अनेक स्वमावों के साथ अनेक स्वभावोंकरके सम्बद्ध हो ? बताओ यदि पहिले पक्षकी कल्पना करोगे तो आलाके उन सम्पूर्ण स्वभावोंको पूर्वके समान एकपनेका प्रसंग होता है और दूसरे पक्षकी कल्पना नाना स्वभावोंके साथ संबंध करानेवाले उन दूसरे अनेक स्वभावोंका उस आत्मासे अभेद मानोगे तो वही पहिला दोष हो जावेगा अर्थात या तो ये सब स्वभाव एक हो जावेगे या आत्मा अनेक हो जावेगी तथा उन स्वभावोंको आत्मासे मिन्न पड़ा हुआ मानोगे तो आत्माका स्वभावोंके साथ संबंध सिद्ध न होगा।
यदि पुनः संबंधकी कल्पना करोगे तो फिर एक स्वभावसे या अनेक स्वभावोंसे संबंध माननेके विकल्स उठाये जायेंगे और वे ही पूर्वोक्त दोष आते जायेंगे । इस तरह कटाक्षरूप प्रश्न, उत्तर
और विकल्प उठाना नहीं निवृत्त होगा। इस प्रकार मूलपदार्थका क्षय करनेवाला अनवस्था दोष होगा तब जैनोंका अनंत पर्यायों में अन्वयरूपसे व्यापक होरहा मला एक आला कैसे व्यवस्थित होगा ! आप बैन उत्तर दीजिये इस प्रकार कोई बौद्ध पण्डित कह रहे हैं।