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________________ तस्यापिन्सामाणः २६९ कथमेकः पुरुषः क्रमेणानन्तान् पर्यायान् व्यामोवि ? न तावदेकेन खभावेन सर्वे.. पामेकरूपतापत्ता नानास्वरूपैयाप्तानां जलानलादीनां नानात्वप्रसिद्धेरन्यथानुपपचे। यहां पर बौद्ध लोग आत्माका नित्यपना उढानेके लिये कटाक्षसहित चौडा पूर्वपक्ष करते हैं कि एक ही आत्मा क्रमसे होनेवाली अनंत भिन्न भिन्न पर्यायोंको कैसे व्याप्त कर लेता है। बताओ । मदि जैन लोग एक स्वमावके द्वारा आत्माका अनेक पर्यायों में व्यापक होजाना मानेंगे वह तो ठीक नहीं है क्योंकि यों तो सम्पूर्ण पर्यायोंको एकपनेकी आपत्तिका प्रसंग होगा । जो एक स्वभावसे रहते हैं वे एक ही हैं। जैसे घट और कलश एकस्वमावसे मूतलमें रहते हैं। इस कारण दोनों घट और कलश एक ही तो हैं । जल, अमि आदिको अनेकपदार्थपना तमी प्रमाणोंसे प्रसिद्ध है जब कि वे शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श, गीला करना, सुखाना, कम्पन कराना आदि अनेक स्वभावोंसे अपनी अपनी पर्यायों में व्याप्त होकर ठहरते हैं। यदि ऐसा नहीं मानकर अन्य प्रकारोंसे माना जाये अर्थात् एकस्वभावके द्वारा भी जल, ममि, आदिको अपनी पर्यायोंमें व्यापक मान लिया जावे तो अरू, अमि वायु, आदिको अनेकपना सिद्ध नहीं हो सकेगा। सर्व एक Bध्य हो जायेंगे। सत्तायकस्वभावेन व्याप्तानामर्थानां नानात्वदर्शनात् पुरुषत्वैकस्वभावेन व्याप्तानामप्यनन्तपर्यायाणां नानात्वमविरूद्धमिति चायुक्तम्, नानार्थव्यापिन: सत्वादेरेकस्वभावस्वानवस्थितेः कथमन्यथैकस्वभावव्याप्तं किंचिदेकं सिद्धयेत् । यदि यहांपर नैयायिक या जैन यों कहे कि जैसे सजा, द्रव्यल आदि एक स्वभावकरके व्याप्त होरहे भी पृथ्वी, जल, वायु आदि अोंका अनेकपन देखा जाता है वैसे ही आत्मस्व मा चेतनत्व नामक एकस्वभावसे न्यास हुये भी अनंत ज्ञान, सुख आदि पर्यायोंको अनेकपना होने में कोई विरोध नहीं है । बौद्ध कहते हैं कि यह भी कहना युक्तियोंसे रहित है क्योंकि अनेक अर्थों में व्यापकरूपसे रहनेवाले सब, द्रव्यत्व, पदार्थस्य आदिको जैनसिद्धान्त, एकस्वमावपना व्यवस्थापूर्वक सिद्ध नहीं है । वे सत्त्व आदिक अनेक स्वभाववाले होकर ही अनेक पदापोंमें ठहर सकते हैं। यदि ऐसा न स्वीकार कर अन्यप्रकारोंसे माना जावेगा तो एकस्वभावसे व्याप्त होरहा कोई एक पदार्थ ही कैसे सिद्ध हो सकेगा ! बताओ। भावार्थ-अबतक एकस्वभावपनेसेही एक पदार्थ होनेकी व्यवस्था है, यही स्याद्वादियों का भी मत है किन्तु अब आप नैयायिकके मन्तव्यके अनुसार एकस्वभावके द्वारा अनेकपनकी भी सिद्धि करने लगे, सो ठीक नहीं है । यों तो पदार्थके एकत्वकी व्यवस्थाही उठ जावेगी। तथा नैयायिककी मानी गई नित्य, एक, और अनेकोंमें रहनेवाली सत्ताजाति तो अनेक दोषोंसे दूषित है। यदि पुन नाखभावैः पुमाननन्तपर्यायान् व्यामुयात्तदा ततः स्वभावानामभेदे तस्य नानात्वम्, तेषाञ्चै सयमनुपज्येन, भेदे सम्बन्धासिद्धव्यपदेशानुपपत्तिः, संबन्धप
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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