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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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देह और चैतन्य कार्यकारणभाव तथा व्यायव्यञ्जक भावके पंक्की तौरसे प्रतिविधान ( खडन ) ही जाने पर इससे ही उन दोनोंके भेद सिद्ध करनेमें उठाया गया यह सिद्धसाधनदोष भी खण्डित होगया है क्योंकि भिन्न तत्त्वरूपसे उन देह और चैतन्यके भेदको हमने साध्य किया है । न्याय यह है कि जो जिसका कार्य होता है, वह उससे वास्तविक भिन्नता नहीं होता है। ऐसा न मानकर यदि किसीके कार्यको भी उससे विजातीय भिन्न तत्त्व मान लोगे तो असंख्य तत्त्व बन बैठेंगे । यह तत्त्वोंकी संख्या के अतिक्रमणका मसँग होगा । अर्थात् मिट्टी, दण्ड, घट, और तुरी, तंतु, पट, इस प्रकार न्यारे न्यारे असंख्याते तत्त्व हो जायेंगे। कोई नियत निर्णीत तत्त्वव्यवस्था नहीं बन सकेगी।
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नापि स्वात्मभृतं व्यंग्यं तत एवं व्यञ्जकाद्भिनं तत्तच्चान्तरमिति चेन, अस्यो रसनस्य तद्भावप्रसङ्गाव, रसनं हि व्यंग्यमद्भ्यो भिन्नं च ताभ्यो न च तवान्तरं तस्याप्तत्वेऽन्तर्भावात् ।
तथा इस ही कारण से जो स्वयं निज व्यंजककी आत्मा स्वरूप हो रहा है, वह व्यंग्य भी तत्त्वान्तर नहीं होता है । अन्यथा यहां भी असंख्य व्यंग्य तत्व भिन्न भिन्न माननेका अतिप्रसङ्ग हो जावेगा । अर्थात् व्यञ्जक प्रदीपके व्यंग्य हो रहे घर पर आदि सर्व ही पदार्थ म्यारे न्यारे तत्त्व बन जावेंगे जो कि तुमको भी अनिष्ट हैं । हम भिन्न तत्त्वपनेसे देह और चैतन्यका भेद सिद्ध कर रहे हैं। अतः चार्वाक अभिन्न तत्वोंमें केवल व्यङ्ग्यव्यंजकपने से भेद मानकर हमारे ऊपर सिद्धसाधन दोष नहीं उठा सकते हैं क्योंकि चैतन्य और देहका तत्त्वान्तर होकर भेद सिद्ध किया आ रहा है इसके समझकर दोष उठाना चाहिए । बालकपन अच्छा नहीं ।
यदि चार्वाक यों कहेंगे कि वह प्रगट करने योग्य चैतन्य तो अपने व्यञ्जक माने गये पृथिवी व्यादिकसे भिन्न है इस कारण दूसरा तत्त्व है, सो यह कहना तो समुचित नहीं है क्योंकि ऐसा माननेपर तो जसे रसना इंद्रिय व्यंग्य हो जाने के कारण तत्त्वान्तर होनेका प्रसंग आता है। देखिये जलतत्वसे बनी हुयी रसना इंद्रिय निश्चय करके जलसे व्यंग्य है और जलोंसे भिन्न भी है किंतु उसको आपने मित्र नहीं माना है कारण कि रसना इंद्रियको जलतत्त्व गर्भित किया है । नैयायिकों के समान चाक भी नासिका इंद्रियको पृथ्वीस्वरूप और रसनाको जलसे बनी हुयी तथा चक्षुः इंद्रियका तेजस् तत्त्व से उत्पन्न होना एवं स्पर्शन इंद्रियको वायवीय स्त्रीकार करते हैं ॥
कार्यकारणयोः सर्वथा भेदात्तद्विशेषयोर्व्यग्यव्यञ्जकयोरपि भेद एवेति चेम, कोविदभेदोपलब्धेः कथमन्यथा चैतन्यस्य देहोपादनत्वेऽपि तत्वान्तरता न स्यात्, देहाrिoid वा, येन कार्यकारणभावेन देहचैतन्ययोर्भेदे साध्ये सिद्धसाधनमुद्भाव्यते ।
यदि तुम चाकि यह कहोगे कि हम नैयायिकके समान कार्य और कारणको सर्व प्रकार से भिन्न मानते हैं । अतः कार्य कारण नाव व्याप्यरूत्र होरहे हयंग्य - व्यञ्जकोंका भी भेद ही है ।