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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः जो सामान्य में धर्म रहता है वह उसके विशेषो में अवश्य पाया जाता है । प्रन्यकार कहते हैं कि यह पाका कथन ठीक नहीं है क्योंकि किन्हीं किन्हीं कार्य और कारणोंमै तन्तु, पटके समान या मिट्टी घटके समान अभेद भी देखा जाता है तथा प्रदीप और घटके समान कई व्यंग्यव्यञ्जकोंमैं भी पौलिकपने से अभेद देखा जाता है यदि आप ऐसा न स्वीकार कर अन्य प्रकार मानेंगे तो शरीररूपकारणको चैतन्य स्वरूप कार्यका उपादानपना होते हुए भी कारकपक्षमें मित्रतत्रपना क्यों नहीं होगा ? अथवा चैतन्यकी देह से प्रगटता माननेपर भी व्यञ्जकपक्षमै सत्त्वान्तररूपसे भेद क्यों न होगा ? बताओ ! जिससे कि कार्यकारणरूप करके देह और चैतन्यका मेद स्वीकार करनेपर आप चार्वाक हमारे तत्वान्तररूप से मदेकों साध्य करने में सिद्धसाधन नामका क्षेत्र उठा सर्के । अर्थात् आपके मतानुसार कार्यकारणरूपसे भेद मानने पर सस्त्रान्तररूपसे भेद सिद्ध करना आपको पहिले इष्ट नहीं था और वैनिकका अनुकरण करनेपर तत्त्वान्तररूप से मेद मानना आपको आवश्यक हुआ । अतः आप हमारे ऊपर सिद्धसापन दोष नहीं उठा सकते है प्रत्युत आपके ऊपर अपसिद्धान्त दोष है । २४४ देवस्य च गुणत्वेन बुद्धेर्या सिद्धसाध्यता । भेदे साध्येतयोः सापि न साध्वी तदसिद्धितः ॥ १३६ ॥ चैतन्यको शरीरका गुण माननेपर भेद साध्य करनेमें गुणगुणी भावसे भेद इष्ट होनेका जो चावकों द्वारा सिद्धसाध्यतारूप दोष उठाया जाता है वह भी अच्छा नहीं है क्योंकि देह और चैतन्यका गुणगुणिभावसे भेद होना सिद्ध नहीं होता है अर्थात् शरीरका गुण चैतन्य सिद्ध नहीं हो सकता है अतः चैतन्यको देवका गुणवन साधने हेतुकी प्रसिद्धि है। कथं देहगुपत्वेन बुद्धेरसिद्धिर्यतो बुद्धिदेहयोर्गुणगुथि मावेन मेदसाधने सिद्धसाधनमसाधीयः स्यादिति ब्रूमहे । चाक कहते हैं कि चैतन्यको देहका गुणपना कैसे असिद्ध है ? बताओ जिससे कि बुद्धि और देहका गुणगुणिरूपसे भेद स्वीकार करनेपर हमारी तरफसे दिया गया सिद्धसाधन दोष अधिक चोखा न होवे | इस चार्वी कके कटाक्षपर अब हम जैन इस प्रकार आरोपसहित बोलते हैं। सुनिये: . न विग्रहगुणो वोधस्तत्रानध्यवसायतः । स्पर्शादिवत्स्वयं तद्वदन्यस्यापि तथा गतेः ॥ १३७ ॥
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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