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________________ तपार्थचिन्तामणिः मी ठीक बैठ जाता है। इस प्रकार माननेसे उपादान उपादेवरूपसे निश्चित किये गये दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों गुणों के एक समयमें उपज जानेका विशेष है, सो नहीं समझना । क्योंकि चारित्र उत्पन्न होने के समय उपादान कारण कहे गये दर्शन और ज्ञानका सर्व प्रकारोंसे नाश नहीं हुआ है। केवल चारित्र के साथ न रहनेपनका ही नाश हुआ है । उपादान कारण द्रव्य सो अक्षुण्ण विद्यमान है । अतः तीनों गुण एक समय में भी पाये जा सकते हैं। घटके दृष्टांत भी केवल कुशूल अवस्थाका नाश होकर घट पर्याय से युक्त मृतिका बन गयी है तभी तो पकानेसे पहिले मिट्टीकी शिवकसे लेकर घट तककी पर्यायों में वैसेके वैसे ही मृतिका के स्पर्श, रूप, रस व्यादिक बने रहते हैं । सोने चांदी घडे में तादृश रहते हैं। दां ! रहित सहितपनेका अंतर पड़ जाता है । एतेन सकदर्शनज्ञानद्वयसम्भवोपि कचिन विरुध्यते इत्युक्तं वेदितव्यम्, विशिष्टज्ञानक्कार्यस्य दर्शनस्य सर्वथा विनाशानुपपतेः। कार्यकालगमाप्नुवतः कारणत्वविरोधात् प्रलीनरामवद । ततः कार्योत्पतेरयोगात्यन्तरासम्भवात् । उक्त कवनसे दर्शन और ज्ञान इन दोनोंका एक समयमे सम्भव होना भी कहीं भी विरुद्ध नहीं होता है, यह भी कहा गया समझ लेना चाहिये । विशिष्टज्ञान है कार्य जिसका ऐसे पूर्ववर्ती सम्यग्दर्शनका सर्वे प्रकारसे नाश हो जाना युक्तिसिद्ध नहीं है। जो कारण पूर्वसमय में ही सर्वथा नष्ट हो चुकेगा वह उतरवर्ती कार्यरूप परिणत भला कैसे होगा ! जो कारण कार्य होने के समय में प्राप्त नहीं हो रहा है, उसको कारणपनेका विरोध है । भले ही वह कार्यके एक समय पहिले जीवित था। किंतु " मरे हुए बाबा गुड नहीं खाते " इस लोकन्याय के अनुसार ध्वस्त पदार्थ उसी प्रकार कार्यकारी नहीं हैं, जैसे कि सहस्रों वर्ष प्रथम नष्ट हो चुका कारण इस वर्तमान के प्रकृतकार्यको नहीं करपाता है । वैसे ही एक समय प्रथम प्रलयको प्राप्त हो चुका कारण भी कार्यको न कर सकेगा । कई दिन प्रथम मर चुका बुड्डा जैसे गुड नहीं खाता है वैसे ही एक क्षण पहिले मर चुका वृद्ध भी गुड नहीं ला सकता है। कारणोंकी सत्ता ही कार्यको करती है। कारणोंका ध्वंस कार्यको नहीं करता है। जो कारण कार्यके समय विद्यमान नहीं है उससे कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। विवाहकी पाणिग्रहण क्रिया के समय दूल्दाका रहना आवश्यक है । कारणके विद्यमान रहने के अतिरिक्त कार्य की उत्पचिका दूसरा कोई उपाय नहीं है। जैन सिद्धांत पर्यायसहित द्रव्यको उपादान कारण माना है । कार्यकालमै द्रव्य विद्यमान है। परिणतियां बदलती रहती हैं । नन्वत्र क्षायिकी दृष्टिर्ज्ञानोत्पत्तौ न नश्यति । तद्पर्यन्तताहानेरित्यसिद्धान्तविद्वचः ॥ ७५ ॥ शंका है कि आप जैन यदि ज्ञानकी उत्पत्ति हो आनेपर पूर्वदर्शन पर्यायका नाश होना मानते हो तो बताओ | इसका उपाय क्या है कि मिकसम्यग्दर्शन के पश्चात् विशिष्ट जानके
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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