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________________ साचिन्तामणिः तया दर्शनशानपरिणतो जीगे दर्शनशाने, ते चारित्रस्योपादानम् , पर्यायविशेषारमकस्य द्रव्यस्योपादानत्वप्रतीतेर्घटपरिणमनसमर्थपर्यायात्मकमृदयस्य घटोपादानवत्ववत्, सत्र नश्यतोरेव दर्शनज्ञानपरिणामयोरामा चारित्रपरिणाममियति चारित्रासहपरिव रूपेण आयोविनाशाचारित्रसहचारितेनोत्पादात्, अन्यथा पूर्ववच्चारित्रासहचरितरूपत्वप्रसङ्गात् । इस ही प्रकार दर्शन और ज्ञान पर्यायोंसे परिणमन करता हुआ संसारी जीव द्रव्य ही दर्शनज्ञानरूप है। वे दर्शन और ज्ञानगुण दोनों उत्तरवर्ती चारित्र गुणके उपादान कारण हैं । विशेष पर्यायोंसे अभेद रखता हुआ द्रव्य ही उपादानरूपपनेसे प्रतीत होरहा है । जैसे कि पटरूप पर्यायको बनाने के लिये समय शिवक आदि पर्याय हैं। उन शिवक, छत्र, स्वास, कोष और कुशूल पर्यायोंसे सदात्मक होरहा मृविका द्रव्य ही घटका उपादान कारण माना गया है। यदि पूर्वसमयवर्ती अकेली पर्यायको ही उपादान कारण कहते तो गुन्यके अन्वयरहित उस पायके सर्वथा नाश होजानेसे कार्यकाम्मे उपादानकारणका दर्शन नहीं हो सकता था। किंतु जैन सिद्धांतके अनुसार प्रत्येक पर्याय इम्यका मन्वय लग रहा है। जैसे कि मोतीकी मालामे पिरोये हुए डोरेका मन्वय ओतपोत होरहा है। अकेला द्रव्य मी उपादान नहीं है । अन्यथा सर्व ही पर्यायें युगपत् होजानी चाहिये और केवल द्रव्य करश होकर पर्याय भी समों प्रारण करेगा ! अतः पर्याययुक्त द्रव्य उपादान है। देखो ! पटवानके उत्तर काळम परज्ञान उत्पन्न हुआ। यहां चेतनापरिणतिके अनुसार घटज्ञान उपादान कारण है। वह मानपनेसे नष्ट नहीं हुआ है। किंतु ज्ञानमें घटकी विषयिता नष्ट होगयी है और पटकी विषयिता उत्पन्न होगयी है । जानकी सत्ता परिणमन करती हुयी सर्वदा विद्यमान है। जैसे सूक्ष्म रूपसे परिणमन करती हुयी कलिकाके प्रकाशमें घरको दूर कर पट रखदिया जाना है। वहां प्रकाश्य पदक गया है । प्रकाशक वही है । इस प्रकरण नाशको प्राप्त होते हुए ही दर्शन और शान पर्यायोका परिणामी आत्मा ही चारित्र पर्यायको प्राप्त होता है । तब चारित्रगुणके असहचारी स्वभावसे उन दोनों दर्शन और ज्ञानका नाश हो चुका है और चारित्रगुणके साथ रहनेपनसे दर्शन, धानका उत्पाद हो गया है। यदि ऐसा उत्पाद, विनाश न स्वीकार कर अन्य प्रकारों से माना पायेगा तो पहिली अवस्थाके समान चारित्र गुणके प्रगट होनेपर मी दर्शन, ज्ञान गुणोंको चारित्रके साय न रहने स्वरूपका प्रसंग हो जावेगा जो कि इष्ट नहीं है | तभी तो चारित्रके समय तीनों गुण माने गये हैं। इति पञ्चित्पूर्वरूपविनाशस्थोचरपरिणामोत्पत्यविशिष्टत्वात् सत्यमुपादानोपमदेनेनोपादेवस्य भवनम् । न चैव सकदर्शनादित्रयस्य सम्भवो विरुध्यते चारित्रकाले दर्शनपानयोः सर्वथा विनाशाभावात् । इस प्रकार पूर्वपर्यायका कथञ्चित् नाश हो जाना ही उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति है। विशेष अंतर - नहीं है। इस कारण उपादान कारणके मटियामेट हो जानसे उपादेयकी उत्पति होना यह सिद्धांत
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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