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________________ तस्वाचिन्तामणिः उत्पन्न होनेपर तो पहिला क्षायिकसम्यक्त्व नष्ट नहीं होता है । क्योंकि क्षायिक सम्यक्स्वको अविनाशी अनंत माना गया है । नष्ट हो जानेसे तो उस क्षायिकसम्यक्त्वके अनंतत्वकी हानि होती है, जो कि इष्ट नहीं है । ग्रंथकार कहते हैं कि इस प्रकार शंका कारके वचन तो बैनसिद्धांतको नहीं समझकर कहनेवाळेके कहना चाहिये। . क्षायिकदर्शनं ज्ञानोत्पत्तौ न नश्यत्येवानन्तत्वात् क्षायिकमानवत्, अन्यथा तदपर्यन्तत्वस्यागमोक्तस्य हानिप्रसंगात् । ततो न दर्शनज्ञानयोज्ञानचारित्रयोवी कथञ्चिदुपादानोपादेयता युक्ता, इति बुदाणो म सिद्धान्तदेन्दी। ___ वार्चिकका विवरण यो है कि शंकाकारका अनुमान है कि विशिष्टज्ञान या केवलज्ञानकी उत्पति होजानेपर मी पहिला क्षायिकसम्यग्दर्शन नष्ट नहीं होपाता है । क्योंकि वह अनन्तकालतक रहनेवाला है । जैसे कि ज्ञानावरणकाँके क्षयसे उत्पन्न हुआ केवलज्ञान अनन्तकालतक रहता है। अतः अविनाशी है। यदि आप जैन ऐसा न मानकर अन्य प्रकारसे क्षायिकसम्पपस्वका विनाश होना मानलोगे तो आपके आगममे कही हुयी क्षायिकसम्यक्त्वके अनन्तताकी हानिका प्रसंग होगा । जिस कारण दर्शन और ज्ञानका तथा ज्ञान और चारित्रका किसी भी अपेक्षासे उपादान उपादेय भाष मानना युक्त नहीं है। क्योंकि पूर्वगुणको उपादान कारण माननेसे ही यह नाश करानेवाली रार ( झगडा ) खडी हुयी है । इस प्रकार कहनेवाला शंकाकार तो जैन सिद्धान्तके मर्मको नहीं जान रहा है। यदि जैनसिद्धान्तको जान लेसा तो ऐसा कुचोध नहीं कर पाता । अब इसका समाधान बार्सिक द्वारा सुनिये, समझिये । सिद्धान्ते क्षायिकत्वेन तदपर्यन्ततोक्तितः । सर्वथा तद्विध्वंसे कौटस्थ्यस्य प्रसङ्गतः ॥ ७६ ॥ बैन सिद्धान्तमें उस क्षायिक सम्यग्दर्शनको अनन्तकालतक अविनाशी कहा है । यह कयन क्षयसे होनेवाले या क्षयके होनेपने में है। भावार्थ-एक पार दर्शनमोहनीय कर्मके क्षय हो जानेसे शायिक सम्यक्स्व उत्पन्न होगया। फिर बार बार दर्शनमोहनीय कर्मका टण्टा नहीं रहता है । एक बारका हुअक्षय अनन्तकातक स्वामाविक परिणमनोमें उपयोगी है। हम द्रव्य मा गुणको अपरिणामी नहीं मानते हैं। यदि उन क्षायिक गुणों का सर्व ही प्रकारों से किसी भी प्रकारसे ध्वंस होना नहीं माना जावेगा तो गुणोंको कूटस्थ नित्यपनेका प्रसंग होता है । और कूटस पदार्ममें अर्थक्रिया नहीं होने पाती है । अतः अश्वविषाणके समान वह अबस्तु है। तथोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति हीयते । प्रतिक्षणमतो भावः क्षायिकोऽपि त्रिलक्षणः ॥ ७७ ॥
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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