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सत्यार्थचिन्तामणिः
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तथा दूसरी बात यह है कि यदि पदार्थोंका किसी भी प्रकारसे नाशरूप परिवर्तन होना नहीं माना जायेगा तो उत्पाद, व्यय और औन्यसे सहित सत् द्रव्य होता है, इस सिद्धांत की हानि हो जावेगी । इस कारण कमोंके क्षयसे होनेवाले माय मी प्रत्येक समयमै उत्पाद, व्यय और श्रव्य इन तीन लक्षणवाके हैं, तभी तो वे सत् पदार्थ हैं । क्षायिकभाव अनंतकालतक वहका वही रहता है, इसका अर्थ है कि वैसा ही रहता है । आकाश, सुमेरुपर्वत, सूर्य, चंद्रमा, सुवर्ण आदि दृढ पदार्थ भी प्रतिसमय में पूर्वस्वभावका त्याग, उत्तर स्वभावोंका प्रहण और द्रव्यपनेसे स्थिरता इन तीन लक्षपको लिये हुए हैं। परमपूज्य सिंद्ध भगवान और उनके अनंतसंख्यात्राले गुण मी उत्पाद, व्यय, व्यसे युक्त हैं । क्षायिकगुणों में अब किसी अन्य विजातीय कारणकी आवश्यकता नहीं रही है । केवल अपने स्वभावोंसे ही उत्पाद, व्यय करते हुए वे अनंतकाल तक ठहरे रहेंगे, द्रव्य परिणामी होता है। ऐसा जैनसिद्धांत है ।
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ननु च पूर्व समयोपाधितया क्षायिकस्य नावस्य विनाशादुत्तरसमयोपाधितयोत्परदात्वस्वभावेन सदा स्थानात्रिलक्षणत्वोपपत्तेः, न सिद्धांतमनबनुष्य क्षायिकदर्शनस्य areer स्थितिं ब्रूते येन तथा वचोऽसिद्धांतवेदिनः स्यादिति चेत्
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अब फिर शंकाकार कहता है कि मैंने जैन सिद्धान्तको जानकर ही शंका की थी। मैं अश नहीं है । जैनियोंके उत्पाद, व्यय, धौव्यके सिद्धान्तको जानता हूं । क्षायिक सम्यग्दर्शन के किसी प्रकारसे नष्ट न होते हुए भी आप जैनोंकी विलक्षणता बन जाती है । व्यवहार काल नष्ट होता है और उत्पन्न होता है । कालमें रहनेवाला क्षायिकगुण नाशशील नहीं है। हां! पूर्व समय रहनेवाला क्षायिकगुण दूसरे समयमै मी रहनेवाला वही नित्य क्षायिकगुण है । अन्सर इतना ही है कि क्षायिक गुणके पूर्व समय में रहनेरूप विशेषत्वणसे युक्त मावका पर्यायरूपसे नाश हो गया है, और उत्तर समयमै रहनारूप विशेषणकरके उत्पाद हो गया है। तथा अपने स्वमाव करके क्षायिकगुण सर्वदा स्थित रहता है। इस कारण त्रिलक्षणपनेकी सिद्धि हो गयी । देवदत्तका रुपया जिनदत्तके पास आगया वहां रुपया वही है । हां! स्वामित्वसम्बन्धका उत्पाद विनाश हो गया है । अतः जैन सिद्धान्त के तत्त्वको न समझकर यह मैं क्षायिक सम्यग्दर्शनकी ज्ञान के समय अक्षुण्णस्थितिको नहीं कह रहा हूं जिससे कि उस प्रकार पूर्वोक्त शंषारूपी वचन मुझे सिद्धान्तको न जाननेवालेके होते। भावार्थ — त्रिलक्षणताकी सिद्धि होते हुए भी ज्ञानके उत्पन्न होजानेपर क्षायिक सम्यग्दर्शन नष्ट नहीं होता है । मला ऐसी दशा में जैनोका माना गया दर्शन, ज्ञानका या ज्ञान, चारित्रका उपादान उपादेयपन कैसे सिद्ध होगा ? यह मेरी शंका खडी हुयी है। आप जैन इसका उत्तर दीजिये ! टालिये नहीं, आचार्य बोलते हैं कि यदि शंकाकार ऐसा कहेगा सो—
पूर्वोत्तरक्षणोपाधिस्वभावक्षयजन्मनोः ।
क्षायिकत्वेनावस्थाने स यथैव त्रिलक्षणः ॥ ७८ ॥