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________________ स्वाचिन्तामणिः शके अतिरिक्त मनुष्यजन्म, वज्रवृषभनाराच संहनन, ढाई द्वीपक्षेत्र, दीक्षा लेना आदि कारण भी मोक्षके सामान्य कारणों में गर्भित हैं । भावार्थ - विशेष रूपसे रत्नत्रय ही मोक्षका मार्ग है यही सूत्रकारकी विवक्षा है । ४७९ साधारणकारणापेक्षा हि सम्यग्दर्शनादित्रयात्मकं मोक्षमार्गमाचक्षाणी न सकलमोक्षकारणसंग्रग्रहपरः स्यात्, कालादीनामवचनात् न च कालादयो मोक्षस्योत्पत्तौ न व्याप्रियन्ते सर्वकार्यजनने तेषां व्यापारात् । तत्र व्यापारे विरोधाभावात् । यदि पुनः सम्यग्दशनादीन्येवेत्यवधारणाभावान कालादीनामसंग्रहस्तदा सम्यग्दर्शनं मोक्षमार्ग इति वक्तव्यम् । सम्यग्दर्शनमेवेत्यवधारणाभावादेव ज्ञानादीनां कालादीनां कालादीनामिव संग्रह सिद्धेस्तत्तद्वचन | द्विशेषकारणापेक्षयायं त्रयात्मको मोक्षमार्गः सूत्रित इति बुद्धयामहे । मोक्षके साधारण कारणों की अपेक्षा ही रत्नत्रय स्वरूपको मोक्षमार्ग कथन करनेवाला सूत्र सम्पूर्ण मोक्ष कारणोंके संग्रहमै तत्पर नहीं कहा जावेगा। क्योंकि काळ, आकाश आदिक भी तो मोक्षके साधारण कारण हैं । उन कारणोंका सूत्रमै कथन नहीं किया गया है। यदि यहां कोई यह कह बैठे कि काल आदिक तो मोक्षकी उत्पतिमें कुछ भी व्यापार नहीं करते हैं। अतः मोक्षके सामान्य कारणको निरूपण करनेवाले सूत्रमें काल आदिकका कथन नहीं किया है । आचार्य कहते है कि किसीका यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि उन व्यवहार काल, आकाश, कालपरमाणु, भाविका सम्पूर्ण कार्यों की उत्पत्तिमें व्यापार हो रहा है । अतः उस मोक्षरूप कार्यकी उत्पत्ति भी काल आदिक व्यापार होने में कोई विरोध नहीं है। यदि शंकाकार पुनः यह कहे कि काल आदिका भी असंग्रह न होगा । क्योंकि सूत्रकारने सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही मोक्षके मार्ग हैं, ऐसा नियम तो किया नहीं है । अतः काल, आकाश आदिका भी संग्रह हो जाता है। इसपर हम जैन कहते हैं कि तब तो मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन है, इतना ही कह देना चाहिये । सम्यग्दर्शन ही मार्ग है, ऐसा नियम तो किया ही नहीं है। इस ही कारणसे काल आदिकोंके समान ज्ञान, चारित्रका भी संग्रह होना सिद्ध हो जावेगा । किन्तु सम्यग्दर्शन मोक्षका मार्ग है, ऐसा संक्षिप्त कथन नहीं किया है । तिस कारण हम यों समझते हैं कि उन विशेषकारणों की अपेक्षासे ही यह रत्नजस्वरूप मोक्षमार्ग है, ऐसा सूत्रकारने आदि सूत्रमें सूचित किया है। जो बात युक्तिसे सिद्ध हो ara | वह शंकाकारको मी हृदयंगत करलेना चाहिये । 1 पूर्वावधारणं तेन कार्यं नान्यावधारणम् । यथैव तानि मोक्षस्य मार्गस्तद्वद्धि संपदः ॥ ३९ ॥ उद्देश्य और विषेयदलमें कहीं कहीं दोनों ओर से अवधारण होजाता है। जैसे सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है और सम्यग्ज्ञान प्रमाण ही है। देव तथा नारकियोंके ही उपपाद जन्म होता है। देव नार
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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