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________________ १७८ सस्था चिन्तामणिः ....... - wrawww w . ana...... .... .........--. वाले अतीचार भी चारित्रके विपर्यास है एवं कुमेषियोंके पंचामि तप, मुण्डन, जटा रखना, कान फार लेना आदि मी मिथ्याचारित्र समझ लेने योग्य हैं। उन सबकी निवृत्ति सम्यक् पद देनेसे हो जाती है। तीन मूढता, संशय, माया आदि विपर्यासोंके होनेपर दर्शन, ज्ञान और चारित्रको समीचीनपना सिद्ध नहीं होता है। तदेवं सकलसूत्रावयवव्याख्याने तत्समुदायब्याख्यानात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गो वेदितव्य इति व्यवतिष्ठते । ति का इस प्रहार पहिले जसले मार्ग जवानोंकी व्याख्या कर देनेपर उन अवयवोंके । समुदायल्प सूत्र का मी व्याख्यान हो चुका है । अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन गुणोंकी एकता हो जाना ही मोक्षका मार्ग समझ लेना चाहिये । यहांतक उक्त सिद्धांत व्यवस्थित हो जाता है। तत्र किमयं सामान्यतो मोक्षस्य मार्गवयात्मका सूत्रकारमतमारूढः किं वा विशेपत १ इति शंकायामिदमाह। उक्त सिद्धांत तो हमने मान लिया । किंतु उस सूत्रके प्रकरणमे हमको यह पूंछना है कि यह मोक्षका रत्नत्रयस्वरूप मार्ग सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजके मतमें व्यवस्थित है सो क्या सामान्य रूपसे है अथवा क्या विशेषरूपसे रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है ! बताओ । इस प्रकार का होनेपर श्री विद्यानंद स्वामी यह वक्ष्यमाण उत्तर कहते हैं। तत्सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षमार्गो विशेषतः । सूत्रकारमतारूढो न तु सामान्यतः स्थितः ॥ ३७ ॥ कालादेरपि तद्धेतुसामान्यस्याविरोधतः । सर्वकार्यजनौ तस्य व्यापारादन्यथास्थितेः ॥ ३८॥ वे सम्यग्दर्शन आदि समुदित तीनों गुण तो विशेषरूपसे मोक्षमार्ग हैं । यही सिद्धांत सूत्रकारके मतव्यमें आरूढ हो रहा है। किंतु सामान्यकारणोंकी दृष्टि से रत्नत्रयको मोक्षका मार्ग नहीं कहा गया है, यह बात सिद्ध हो चुकी है। यदि सामान्य कारणोंका निरूपण किया जाना इष्ट होता तब तो काल, आकाश आदिको भी उस मोक्षके सामान्यरूपसे मार्गपनेका विरोध नहीं है । जगत्के सम्पूर्ण कार्योकी उत्पत्ति होने सामान्यकारण माने गये उन काल माविका व्यापार होता है, यों निरूपण किये विना भी सामान्य कारणोंकी दूसरे प्रकारसे मी व्यवस्था हो सकती थी। अत: विशेष रूपकर कथन करनेसे प्रतीत होता है कि रत्नत्रय विशेषरूपसे ही मोक्षका मार्ग है। काल आका
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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