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________________ ७८० तस्वार्थचिन्तामणिः कियोंके उपपाद ही जन्म होता है। और कहीं कहीं कहीं पहिला ही अवधारण हो सकता है । जैसे मनुष्य भक्से ही मोक्ष होती है। यहां मनुष्य भवसे मोक्ष हो ही जाती है, ऐसा विधेय दलमें अवधारण नहीं होता है और कहीं कहीं विधेयदलमे ही अवधारण होता है । जैसे रूपवान् पुद्गल ही है। यहां पुद्गल रूपवान ही है। ऐसा नियम नहीं कर सकते हैं। क्योकि रस, गन्ध आदि गुण भी वहां विद्यमान है । की दोनों भी दलोंमें अवधारण नहीं होता है। जैसा नील कम्बल है । राजा धर्मात्मा है । यहां नीला ही कम्बल होता है या नीला कम्बल ही होता है, ऐसा नियम नहीं हो सकता है। क्योंकि कम्बल लाल शुक्ला भी होता है तथा कमल या नीलमणि, जामुन आदि पदार्थ भी नीले होते हैं। कोई कोई राजा पापी भी होते हैं तथा राजाओसे अतिरिक्त पंडित सेठ लोग भी धर्मात्मा होते हैं । अतः यहां उद्देश्य और विधेयम एवकार नहीं लगता है । एवकारके तीन भेद माने गये हैं । अन्ययोगव्यवच्छेद, अयोगव्यवच्छेद और अत्यन्तायोगव्यवच्छेद । प्रथम अन्ययोग व्यवच्छेद विशेष्य के साथ एबकार लगानेसे हो जाता है । जैसे अर्जुन ही धनुर्धारी है। यहां अर्जुनसे अतिरिक्त व्यक्तियोंमें घनुषधारीपनकी. व्यावृत्ति हो जाती है । दूसरा एवकार अर्जुन धनुर्धारी ही है अर्थात् अर्जुन तलवार, चक्र आदि शनोंको धारण नहीं करता है। यह अयोगव्यवच्छेद विशेषणके साथ एक्कार लगने अन्य धमाकी व्याधि कर देता है ।स। क्रियाके साथ एवकार लग जानेसे नीला कमक होता ही है । अर्जुन धनुषधारी है ही, यहाँ अत्यन्तायोगव्यवच्छेद है। प्रकरणमें यह विचार है कि प्रथम सूत्रके उद्देश्य विधेयदलमे एक्कार कहां लगाना चाहिये । यहाँ आचार्यमहाराजका सिद्धांत है. कि तिस कारण पहिले उद्देश्यदलम अवधारण करना चाहिये अर्थात् रलाय ही मोक्षमार्ग है। अन्य अकेला दर्शन या मुनि-दीक्षा आदि विशेषरूपसे मोक्षमार्ग नहीं है, दूसरे विधेय दलमै अवधारण नहीं करना चाहिये। यदि विधेय दलमै अबधारण किया जावेगा सो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये मोक्षमार्ग ही हैं। इस नियमसे लौकिक सम्पत्ति, स्वर्ग आदिकी समृद्धिके वे कारण न हो सकेंगे। किंतु जैसे ही वे मोक्षके मार्ग है, वैसे ही स्वर्ग, भोगभूमि, पञ्चविजयादिककी विभूतिके भी कारण है। अतः पहिला ही अवधारण करना ठीक है। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्येव मोक्षमार्ग इत्यवधारणं हि कार्यमसाधारणकारणनिर्देशादेवान्यथा तदघटनात्, तानि मोक्षमार्ग एवेति तु नावधारणं कर्तव्यं । तेषां स्वर्गीधभ्युदयमार्गस्वविरोधात्, न च तान्यभ्युदयमार्गो नेति शक्यं वक्तुं, सद्दर्शनादेः स्वर्गादिमाप्तिश्र वणात् । प्रकर्षपर्यन्तप्राप्तानि तानि नाभ्युदयमार्ग इति चेत् , सिद्ध तीपकृष्टानां तेषामभ्युदयमार्गवम् , इति नोत्तरावधारणं न्याय्य व्यवहारात् । निश्चयनयात्तूभयावधारणमपीटमेव, अनंतरसमयनिर्वाणजननसमर्थानामेव सद्दर्शनादीनां मोक्षमार्गदोपपत्तेः परेषामनुकूलमार्गवाव्यवस्थानात् ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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