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यदि जैन लोग आत्माके अनेक स्वभाव मानते हैं अतः कर्ण और कर्म हो जानेमें कोई दोष नहीं है। यों कहेगे तो यह जैनियोंका कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक, अनेक धर्म माननेसे अनवस्था दोष हो जानेका प्रसङ्ग आवेगा। देखिये आप किसी एक स्वरूपसे आत्माको कर्म कहोगे और अन्य किसीरूपसे आमाको कर्तापन मानोगे । इस प्रकार अनेकस्वरूप माननेपर हम जैनियोंसे पूछते हैं कि भाइओ ! वे आत्माके अनेक धर्म प्रत्यक्षित हैं अथवा अप्रत्यक्षित हैं ! बताओ। प्रथम पक्ष अनुसार यदि उन आत्माके धोका प्रत्यक्ष होना मानोगे तब तो वे धर्म अवश्य कर्म होने चाहिए और उन घमौका प्रत्यक्ष करनेवाला कर्ता भी न्यारा होना चाहिए । तथा यदि उन न्यारे अनेक कर्तृत्व, कर्मत्व धर्मों का भी प्रत्यक्ष होना स्वीकार करोगे तो फिर उन धर्मों में भी न्यारे न्यारे कर्मपन और कर्तापन धर्म अवश्य स्वीकार करने पड़ेंगे, उन कर्मस्व और कर्तृत्व धोका भी प्रत्यक्ष होना मानोगे। क्योंकि वे जैन मतानुसार आत्मासे अभिन्न हैं तो उनके लिये भी तीसरे चौथे न्यारे कर्मव कर्तृख धर्म अवश्य ही होंगे। इस प्रकार ऊंट की पूंछमें ऊंट के समान अनवस्था हो जावेगी। दूर आकर भी कहीं ठहरना नहीं हो सकेगा।
तदनक रूपममत्यक्षं चेत्, कभमात्मा प्रत्यक्षो नाम ? पुमान् प्रत्यक्षस्तत्स्वरूप न प्रत्यक्षमिति का श्रद्दधीत !
यदि जैनजन उन अनेक धोका नहीं प्रत्यक्ष होना मानेगे तो उन घाँसे अभिम आरमाका कैसे प्रत्यक्ष हो सकेगा ? भात्माका प्रत्यक्ष होना माना जावे और उसके तदात्मक धाँका प्रत्यक्ष होना न माना आवे इस प्रकार कौन परीक्षक श्रद्धान कर सकता है ! भावार्थ--ऐसी बातोंका कोरे मक्तजन भले ही श्रद्धान कर लेवे, मीमांसा करनेवाले परीक्षक श्रद्धा नहीं करेंगे । अर्धजरतीय दोषका प्रसा आ जावेगा।
यदि पुनरन्या को स्यात्तदास प्रत्यक्षोऽप्रत्यक्षो वा! प्रत्यक्षश्चेव कर्मत्वेन प्रतीयमानोऽसाविति न कसा स्याद्विरोधात् कथमन्यथैकरूपतास्मनः सिद्धयेत् । नानारूपत्वादात्मनो न दोष इति चेन्न, अनवस्थानुपात, इत्यादि पुनरावर्तत इसि महच्चक्रकम् ।
जैन लोग फिर दूसरे पक्षक अनुसार यदि उस आस्माको जानने के लिये अन्य आत्माको कर्ता मानेगे तो बताओ ! वह दूसरा आत्मा प्रत्यक्ष है अथवा अपत्यक्ष : अर्थात् उस आत्माका प्रत्यक्ष होना है या नहीं । यदि दूसरे आत्माका प्रत्यक्ष होना मानोगे तब तो वह कर्मपनेसे आना जा रहा है । इस कारण कर्ता न हो सकेगा । क्योंकि एक वस्तु कापन और कर्मपनका विरोध है। अन्यथा यानी यदि विरोध न मानोगे तो आत्माका एकरूपपना कैसे सिद्ध हो सकेगा: पताओ।
यदि जैन लोग यह कहे कि आत्मा अनेक धर्मस्वरूप है अतः कर्तापन और कर्मपन दोनों एक आत्मामें रह सकते हैं कोई दोष नहीं आता है । मीमांसक कहते हैं कि यह कहना भी ठीक