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सल्लावितामांकः
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आस्मा प्रत्यक्ष मी नहीं है। ऐसा कुछ जैन सिद्धान्तका अनुसरण और कुछ आक्षेप करते हुए कोई मीमांसक कहते हैं।
सत्पमात्मा संवेदनात्मका स तु न प्रत्यक्षः कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वात्। न हि या नीलमहं जानामीत्यत्र नीलं कर्मतया चकास्ति तथात्मा फर्मत्वेन । अप्रतिमासमानस्य पन प्रत्यक्षत्वम् , सस्य तेन व्याप्तत्वात् !
स्याद्वादियोंसे मीमांसक कई एस आत्मा भानस्वरूप है। यह लापका पहना सब है किन्तु वह आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है। क्योंकि कर्मपनेसे आत्माकी प्रतीति नहीं होती है। जैसे में नीले कम्बलको जान रहा हूं यों यहां नीले कम्बलका कर्मपनेसे प्रतिभास हो रहा है उस प्रकार आत्माका कम्पनेसे प्रतिमास नहीं होता है । भावार्य- जाननारूप क्रियाका आमा कर्ता है, कर्म नहीं है, बो प्रतिभासनक्रियाका कर्म नहीं है, वह प्रत्यक्ष ज्ञानका कर्म या विषय भी नहीं है क्योंकि उस प्रतिभासन क्रियाके कर्म होनेके साथ उस प्रत्यक्षज्ञानके विषय होनेकी न्याति है। पतिभास्मपना व्यापक है और प्रत्यक्ष विषयपना व्याप्य है ।
आस्मानमई जानामीस्यत्र कर्मतयात्मा भात्येवेति चायुक्तमुपचारितत्वाचस्प तवा मतीते। आनातेरन्पत्र सकर्मकस्य दर्शनादात्मनि सकर्मकत्वोपधारसिद्ध, परमार्थतस्तु पुंसः कर्मत्वे का स एव वा स्यादन्यो वा ? न तावत्स एव विरोधात् । कयमन्यथैकरूपतात्मनः सिद्धयेत्, नानारूपवादात्मनो न दोष इति चेत् न अनवस्थानुषशात् । केनचिद्रूपेण कर्मत्वं केनचित्कर्तृत्वमित्यनेकरूपत्वे शात्मनस्तदनकें रूपं मत्यक्षमप्रत्यक्ष वा ! प्रत्यर्थ चेत्कर्मत्वेन भान्यमन्येन तत् कर्तुत्वेन, सत्कर्मत्वकर्तृत्वयोरपि प्रत्यक्षत्वे परेप कर्मवेन कर्तृत्वेन चावश्य भवितव्यमित्यनवस्सा।
___ मीमांसक ही कह रहे है कि आस्माको "मैं जानता है यों ऐसे प्रयोगमै कर्मपसे आस्मा प्रतिभासित हो जाता ही है। यह जैनोंका कहना भी अयुक्त है। कारण कि में आस्माको जान रहा है, यह उस आत्माकी इस प्रकारको प्रतीति तो उपञ्चरित है । वही स्वयं कर्तारूपसे जाने और स्वयं कर्मरूपसे अपनो आने यह कैसे सम्भव है ! आत्माश्रय दोष आता है। जाननारूप क्रिया अन्य षट, पट, पुस्तक आदिमें सकर्मक होकर देखी जाती है। इससे भामामे भी ज्ञान क्रियाके सकर्मकपनेका आरोप कर सेना सिद्ध है । वास्तविकरूपसे यदि आत्माको ज्ञानक्रियाका कर्म मानोगे तो ऐसी दशाम उस ज्ञानक्रियाका कर्ता वही आस्मा होगा या कोई दूसरा मामा कर्ता माना जायेगा ! बताओ, पहिला पक्ष तो ठीक नहीं है। क्योंकि यदि उसी आत्माको कर्ता मानोगे तब तो विरोष है। एक ही आत्मा कर्ता और कर्मपनेरूप होकर विरुद्धस्वभावोंको धारण नहीं कर सकता है। अन्यपा आत्माको एकधर्मस्वरूपपना कैसे सिद्ध होगा ! जो कि हम मीमांसकोंको इष्ट है।