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तस्वार्थचिन्तामणिः
स्याद्वादियोंके ऊपर नैयायिक कटाक्षसहित शंका उठाते हैं कि माप आत्माको अपने आप जानने योग्य भले ही मानें तो भी तीन स्वभाववाले उस आस्मा में प्रमातापने और प्रमेयपनेकी शक्तिको स्वयं परिच्छेदकशक्ति से अतिरिक्त मानी गयी दूसरी परिच्छेदकशक्तिसे ज्ञेय मानोगे और वह आत्माकी ज्ञेयनेकी परिच्छेद्यपन शक्ति भी तीसरी परिच्छेदकशकिसे जानी जावेगी और तीसरी परिच्छेदक शक्ति न्यारी चौथी शक्तिले जानी जावेगी । क्योंकि जानने के कारण जो आम के स्वभाव होंगे, वे अभिन्न होनेके कारण ज्ञेय होते चले जायेंगे। इस तरह से अनवस्था दोष तुम्हारे ऊपर भी आता I
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यदि शक्तियों को जानने के लिये परिच्छेदकशक्तियां नहीं मानोगे तो आदिकी भी प्रमातापन और प्रमेयपनकी भिन्न दो शक्तियां क्यों मानते हो ? सब तो ये दो शक्तियां एक आत्मामें प्रमातापन और प्रमेयपन इन दो धर्मोकी कारण न हो सकेंगी। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नैयायिकोंका तर्क स्याद्वादियोंके ऊपर नहीं चलता है, क्योंकि जाननेवाले प्रतिपत्चाकी आकांक्षाओंके निवृत्त हो जानेसे ही कहीं भी दूसरी, तीसरी, कोटि पर स्थिति हो जाना सिद्ध है । हम ऐसा नहीं मानते हैं कि परिच्छेदकपनेकी या परिच्छेद्यपने नादिकी शक्ति जबतक अम्बके द्वारा स्वयं ज्ञात न होगी तब तक अपने प्रमातापन या प्रमेयपन आदिका ज्ञान ही नहीं होता है जिससे कि अनवस्था दोष हो जावे। किंतु हम यह मानते हैं कि आह्माने अपनेको अपने आप जान लिया । जैसे व्यभि दाहपरिणाम करके अपने को जला रही है। दीपक स्वयंको अपनी प्रभासे प्रकाशित कर रहा है आदि इस कासे ही उन दोनों तीनों शक्तियोंका अनुमान हो जाता है । शक्तियां सम्पूर्ण अतीन्द्रिय होती हैं । अतः सामान्य जीवोंको उनका अनुमान ही हो सकता है प्रत्यक्ष नहीं। हां, जिस ज्ञाताको शक्तियों के जानने की आकांक्षा नहीं हुयी है उसको उन शक्तियोंका अनुमान करना मी व्यर्थ पडता है। शक्तियोंके ज्ञानका कोई उपयोग नहीं, यहां कारकपक्ष है। शक्तियां नहीं भी ज्ञात होकर काम को कर देती हैं। इस प्रकार स्वयं ज्ञानदर्शनोपयोग स्वरूप आत्माकी युक्तियोंसे सिद्धि कर दी गयी है । आमाका लक्षण उपयोग ही है, यह समुचित है। यहांतक नैयामिकों के साथ विचार किये गये प्रकरणकी समाप्ति कर अब मीमांसकों के साथ विचार चलाते हैं।
कर्तुरूपतया वित्तेरपरोक्षः स्वयं पुमान् ।
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अप्रत्यक्षश्च कर्मत्वेनाप्रतीतेरितीतरे ॥ २१४ ॥
भट्ट, प्रभाकर, मुरारि ये तीनों मीमांसक करणज्ञानका प्रत्यक्ष नहीं मानते हैं । मट्टमतानुयायी आत्माका प्रत्यक्ष मानते हैं और प्रभाकर फलज्ञानका प्रत्यक्ष मानते हैं। यहां प्रकरणमें नैयायिकोंसे न्यारे किन्हीं अन्य मीमांसकों का कहना है कि कर्तारूपसे आत्माका स्वयं ज्ञान होता है। इस कारण आस्मा परोक्ष नहीं है, और कर्मरूपसे आत्माकी प्रतीति नहीं होती है। इस कारण