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________________ संस्वार्थचिन्तामणिः ३२९ नहीं है । क्योंकि अनवस्था दोष आजायेगा | अर्थात् किसी स्वभावसे कर्तापन और अन्य स्वभावसे I कपना माननेपर और पुनः उनके प्रत्यक्ष और अपत्यक्ष आदिका प्रश्न उठाते उहाले उन्हीं चोद्योंकी फिर भी बार बार आवृत्ति होगी । इस प्रकार जैनियोंके ऊपर बढा भारी अनवस्थागमित चक्रकदोष हो जानेका प्रसङ्ग आवेगा । तीन चार उत्तर प्रश्नोंके घुमाते रहने से चक्रक दोष लगता हैं और इनकी आकांक्षा बढती जानेसे अनवस्था चालू रहती है ॥ तस्याप्रत्यक्षत्वे स एवास्माकमात्मेति सिद्धोऽप्रत्यक्षः पुरुषः । परोक्षोऽस्तु पुमानिति चेत् न तस्य कर्तृरूपतया स्वयं संवेद्यमानत्वात् । सर्वथा साक्षादप्रतिभासमानो हि परोक्षः परलोकादिवन पुनः केनचिद्रूपेण साक्षात्प्रतिमासमान इत्यपरोक्ष एवं आत्मा व्यवस्थितिमनुत्रति इति केचित् । इस द्वितीयपक्ष के अनुसार अभीतक मीमांसक ही कहें जाते हैं कि उक्त दोषों को दूर करने के लिये जैनलोग यदि उस आत्माका प्रत्यक्ष होना नहीं मानेंगे, तब तो वहीं हम मीमांसक लोगोंका माना हुआ मी आत्मा है । इस प्रकार मीमांसकों के अनुसार अपत्यक्ष आत्मा सिद्ध हुआ । यदि कोई आत्माको सर्वथा परोक्ष होना ही स्वीकार करे यों तो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उस आत्माका कर्तापन धर्मसे स्वयं अपने प्रत्यक्षरूप संवेदन किया जा रहा है। जो वस्तु सभी प्रकारोंसे साक्षात् प्रत्यक्षस्वरूप प्रतिभासित नहीं होती है, वह परोक्ष मानी जाती है। जैसे कि आकाश, परमाणु, परलोक, पुण्य, पाप आदि हैं। इनकी ज्ञप्ति अपौरुषेय वेदसे हो सकती है, किंतु जो फिर किसी भी एक अंशसे प्रत्यक्षरूप जानी जा रही है, वह सर्वथा परोक्ष नहीं हो सकती है । आत्माका कर्त्तारूपसे प्रत्यक्ष हो रहा है, इस कारण परोक्षपनेसे रहित ही आत्मा कथञ्चित् प्रत्यक्ष रूप व्यवस्थित होनेका अनुभव करता है। इस प्रकार बडी देरसे कोई एक मीमांसक अपने मत की पुष्टि कर रहे हैं। यह मीमांसक आत्माका कर्तारूपसे प्रत्यक्ष होना इष्ट करते हैं । तेषामप्यात्मकर्तृत्वपरिच्छेद्यत्वसम्भवे । कथं तदात्मकस्यास्य परिच्छेद्यत्वानिह्नवः ।। २१५ ॥ कार कहते हैं कि उन मीमांसकों के मतने भी आत्मा के कर्तापनेका जब परिच्छेधपना ( जाना गयापन ) सम्भव हो रहा है, ऐसी दशामें उस कर्तापने अभिन्न हो रहे इस आत्माको परिच्छित्ति के कर्म बनने का कैसे छिपाना हो सकता है ! भावार्थ-मीमांसक आत्माको इसिका कर्म नहीं बनने देते हैं किंतु जब उन्होंने आत्माकी कर्तृता ज्ञेय मानी है तो कर्तृतासे अभिन्न मानी गयी आमाको भीतिका कर्म मानना आवश्यक हुआ । कर्तृस्वात्मनः संवेदने तत्कर्तृत्वं तावत्परिच्छेद्यमिष्टमन्यथा तद्विशिष्टतयास्य संवेदनविरोधात्, तत्सम्भवे कथं तदात्मकस्यात्मनः प्रत्यक्षत्वनिवो युक्तः । 42
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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