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सत्वार्थचिन्तामणिः
सबसे प्रथम यह बात विचारणीय है कि आप मीमांसक आत्माका कर्तापनसे संवेदन होना मानोगे तो उस कर्तापनेको परिच्छित्तिका कर्म इष्ट करना ही पडेगा । अभ्यथा अर्थात् यदि कर्तापनको परिच्छित्तिका कर्म न मानोगे तो उस कर्तापनसे सहित हो रहे इस आस्माके ज्ञान होनेका विरोध है, किंतु जब आत्मा के उस कर्तृकी परिच्छिा होना सम्भव है तो कर्तृत्वसे तादात्म्य रखते हुए आत्माको प्रत्यक्षपनका छिपाना कैसे भी युक्तिपूर्ण नहीं है ।
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ततो भेदे नरस्यास्य नापरोक्षत्वनिर्णयः ।
न हि विन्ध्यपरिच्छेदे हिमाद्रेरपरोक्षता ॥ २१६ ॥
आप मीमांसक यदि उस कर्तृत्व नामक धर्मसे आत्माका सर्वथा भेद मानोगे तो आत्माके अपरोक्षपनेका निश्चय नहीं हो सकता है, क्योंकि कर्तापनका प्रत्यक्ष कर लेनेपर भी उससे भिन्न आमाका अपरोक्षरूप से जान लेना अशक्य है । विन्ध्यपर्वत के प्रत्यक्ष कर लेने पर भी हिमालय पहाड़ की अपरोक्षता नहीं मानी आती है । अर्थात् मीमांसक आमाका कर्तापनसे संवेदन हो जानेके कारण आत्माको परोक्ष नहीं मानते हैं, किंतु कर्तृताका आत्मासे भेद होनेपर उक्त सिद्धांध नहीं ठहरता है | कर्तृताका प्रत्यक्ष हो जायेगा, एतावता आत्माका तो प्रत्यक्ष नहीं हुआ। मीमांसक आत्माका अपने डीलसे प्रत्यक्ष होना मानते नहीं हैं। हां, सर्वथा परोक्षपनका निराकरण करते हैं ।
कर्तृस्वाद्भेदे पुंसः कर्तृस्वस्य परिच्छेदो न स्याद विन्ध्यपरिच्छेदे हिमाद्रेरिवेति । सर्वश्रात्मनः साक्षात्परिच्छेदाभावात्परोक्षतापत्तेः कथमपरोक्षत्वनिर्णयः १ ततो नैकान्तेनात्मनः कर्तृत्वादभेदो भेदो वाऽभ्युपगन्तव्यः ।
मीमांसक यदि कर्तापन -- धर्मसे आत्माको सर्वथा भिन्न मानेंगे तो पुरुषकी कर्तृताका ज्ञान न हो सकेगा । आमाकी कर्तृताको वह जान सकता है जो आत्मा और कर्तृसा दोनोंका ज्ञान करे । जैसे कि विन्ध्य के जान लेनेपर उससे सर्वथा भिन्न हो रहे हिमालयकी ज्ञप्ति नहीं हो पाती है। इस प्रकार आत्माका सर्वथा प्रत्यक्ष करके परिच्छेय न हो जानेके कारण आत्माको पूर्णरूपसे परोक्ष होनेका प्रसंग आता है तो फिर आपके माने हुये आत्मा के अपरोक्षपनेका कैसे निश्चय किया जावेगा ! बताओ। इस कारण आत्माका कर्तापन से एकांत करके अभेद अथवा भेद नहीं स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि दोनों ही पक्षोंमें पूरे तौरसे प्रत्यक्ष होने का या परोक्ष होने का प्रसंग आता है ।
भेदाभेदात्मकत्वे तु कर्तृत्वस्य नरात्कथम् ।
न स्यात्तस्य परिच्छेये नुः परिच्छेद्यता सतः ॥ २१७ ॥