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________________ तस्वामचिन्तामणिः मदि आत्मासे कर्तृत्वधर्मका कथंचित् मेदाभेद मानोगे तो उस कर्तृत्वक परिच्छेद्य हो जानेपर विद्यमान हो रहे आत्माकी परिच्छेधता क्यों न होगी! अर्थात् आत्मा परिच्छित्ति-क्रियाका कर्म भी बन जावेगा । कर्तृत्वमें जो बाते हैं वे तदभिन्न आत्मामै भी स्वीकार करनी पडेगी । कथञ्चिद्भेदः कथञ्चिद भेदः कर्तृत्वस्य नरादिति चायुसमशतो नरस्व प्रत्यक्षस्वप्रसंगात् । न हि प्रत्यक्षातवाद्येनांशेन नरस्याभेदस्तेन प्रत्यक्षत्वं शक्यं निषेन्दु, प्रत्यक्षादभिन्नस्याप्रत्यक्षत्वविरोधात् । स्याद्वादियोंके सहश मीमांसक भी आत्मासे कर्तृताका कथञ्चित् धर्मधर्मीभावसे भेद मानेगे और द्रव्यरूपसे कञ्चित् अभेद मानेंगे सो तो उनके सिद्धांतसे अयुक्त होकर ठीक नहीं पडेगा, क्योंकि जिस अंशके द्वारा आत्माका कर्तृत्वसे अभेद माना है, उस अंशसे आत्माका विशदरूपसे प्रत्यक्ष होनेका प्रसंग आता है । प्रत्यक्षप्रमाणसे जाने जा चुके कर्तृत्वधर्मसे जिस अंश करके आत्माका अमेद है, उस स्वरूपसे आत्माके प्रत्यक्ष होनेका कोई निषेध नहीं कर सकता है । क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाणके विषय हो चुके पदार्थसे अभिन्न माने गये वस्तुका प्रत्यक्ष न होना विरुद्ध है । जिसका प्रत्यक्ष हो रहा है, उससे अभिन्नका भी अवश्य प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा है । " अन्धसर्पविलपदेश, न्यायानुसार आपको जैन सिद्धांत अङ्गीकृत हुआ। प्रत्यक्षत्वं ततोऽशेन सिद्धं निह्नतये कथम् । श्रोत्रियैः सर्वथा चात्मपरोक्षत्वोक्तदूषणम् ॥ २१८ ॥ इस कारणसे आत्माका किसी अंशसे प्रत्यक्ष होना सिद्ध हो गया तो कर्मकाण्डी प्रमाकर मीमांसकोंके द्वारा आत्माकी प्रत्यक्षता कैसे छिपायी जा सकेगी ! आत्माको सर्वथा परोक्ष माननेपर . पूर्वमें कहे हुए दूषण लगते हैं। ननु चात्मनः करूपता कथञ्चिदभिन्ना परिच्छिधते न तु प्रत्यक्षा कर्तरूपता, कर्मतया प्रतीयमानत्वाभावात्तन्नात्मनोऽशेनापि प्रत्यक्षवं सिवधति, यस्य निसचे प्रतीतिविरोध इति चेत्, पथभिदानी कर्तृता परिच्छिद्यते । . प्रभाकरमतानुयायी मीमांसक कहते हैं कि आत्माका कर्तृत्वधर्म आत्मासे कथञ्चित् अभिन्न ही जाना जाता है किन्तु प्रत्यक्षरूपसे नहीं । हम जैसे आत्माका प्रत्यक्ष होना नहीं मानते हैं उसी प्रकार उसके शति, कपन, धर्मका भी प्रत्यक्ष होना नहीं मानते हैं क्योंकि ज्ञप्ति क्रियाके कर्भपनेसे कर्तृतकी प्रतीति नहीं हो रही है। जो कर्म होकर प्रतीत किये जाते हैं, उन घट, पर आदिकोंका प्रत्यक्ष होता है । उस कारण आत्माकी कर्तृत्व अंशसे मी प्रत्यक्षता सिद्ध नहीं होती
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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