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________________ ३३२ सचार्थचिन्तामणिः है, जिसके कि छिपानेपर हमको प्रतीतियों से विरोध होवे। ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि मीमांसक ऐसा कहेंगे तो हम स्याद्वादी पूंछते हैं कि इस अवसर में आप कर्तृताकी परिच्छित्ति कैसे करेंगें ? बताओ, जिस कर्तृलको आप सर्वेथा कर्म नहीं बनने देते हैं, आत्मा के उस कर्तृत्वधर्मकी प्रतीति कैसे भी न हो सकेगी। तस्य कर्तृतयैवेति चेत् तर्हि कर्तुता कर्ता न पुनरात्मा, तस्यास्ततो भेदात् । न ह्यन्यस्यां कर्तृतायां परिच्छिन्नायामन्यः कर्त्ता व्यवतिष्ठतेऽतिप्रसङ्गात् । I आत्मा कर्मस्वरूप नहीं है किन्तु कर्ता है । अतः उस आत्माकी कर्तृपनेसे जो प्रतीति है, वही कर्तृकी परिच्छिति है । आप प्राभाकर यदि ऐसा कहोगे तब तो कर्तृत्वधर्म ही कर्ता मन बैठा, फिर आत्मा तो कर्ता नहीं हुआ। क्योंकि उस कर्तृत्वधर्मसे वह आत्मा भिन्न पड़ा है । कर्तापन से कर्तृत्वधर्म जाना जावे और तैसा ही चुकनेपर उससे सर्वथा मित्र माना गया आस्मा कर्ता हो जाये यह बात व्यवस्थित नहीं हो सकती है । अति प्रसन्न हो जावेगा । अर्थात् यों तो चाहे जो कोई किसीका कर्ता बन जायेगा | कार्यको कोई अन्य पुरुष करे और परितोष लेनेके लिये उनसे भिन्न मनुष्य हाथ पसार देवें ऐसी अव्यवस्था हो जावेगी । नन्वात्मा धर्मी कर्ता कर्तृतास्य धर्मः कथञ्चित्तदात्मा, तत्रात्मा कर्ता प्रतीयत इति एवार्थः सिद्धो धर्मिधर्माभिधायिनो' शब्दयोरेव भेदाचतः कर्तृता स्वरूपेण प्रतिभाति न पुनरन्यया कर्तृतया, यतः सा कर्त्री स्यात् । कर्ता चात्मा स्वरूपेण चकास्ति नापरास्य कर्तृता यस्याः प्रत्यक्षत्वे पुंसोऽपि प्रत्यक्षप्रसङ्ग इति चेत् । तर्द्धात्मा तद्धर्मो वा प्रत्यक्षः स्वरूपेण साक्षात्प्रतिभासमानत्वान्नीलादिवत् । नीलादिर्वा न प्रत्यक्षस्तत एवात्मवत् । सशङ्क पक्षका अवधारण करते हुये मीमांसक कहते हैं कि कर्तृत्व से सहित हो रहा धर्मी आत्मा कर्ता है और आत्माले कथञ्चित् तादात्म्यसंबंध रखता हुआ कर्तृत्व इस आत्माका घ है । वहां आत्मा कर्ता प्रतीत होरहा है इस प्रकारकी प्रतीतिका विषयभूत अर्थ वह आत्मा ही सिद्ध हुआ । केवल घर्मी और धर्म कहनेवाले आत्मा और कर्तृत्वशब्दों में ही भेद है। अर्थ कोई भेद नहीं है । तिस कारण आत्मरूपसे ही कर्तृता प्रतीत हो रही है किंतु फिर जैनोंके पूर्व कटाक्षके अनुसार आत्मासे भिन्न कही गयी कर्तृता करके वह नहीं जानी जा रही है । जिससे कि वह कर्तृता ही इतिकी कत्री बन बैठती । तथा कर्ता आत्मा भी अपने रूपसे ही प्रकाशित हो रहा है। इस आमाकी कर्तृता भी आत्मासे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है, जिसके कि प्रत्यक्ष हो जाने पर आत्माको भी प्रत्यक्षका प्रसंग हो जाता | आचार्य कहते हैं कि यदि मीमांसक ऐसा कहेंगे तब तो आत्म अथवा उसका धर्म कर्तृस इन दोनोंका प्रत्यक्ष हो जावेगा। क्योंकि अपने रूपसे स्पष्ट होकर उनका मजिनासन होरहा है, जैसे कि नोल, घट, पट जादिका प्रत्यक्ष हो रहा है । अथवा यदि अपने
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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