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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः ७५ नहीं पड़ेगा। क्योंकि हम मीमांसकोंने असे 4६ कहा था कि वेदक पाय भी अपवार अर्थज्ञान करा देते हैं, उस समय जनोंने हमारा खण्डन कर दिया था कि यही ( भावना ) हमारा अर्थ है और यह ( नियोग या विधि) हमारा अर्थ नहीं है, इस बातको शद्ध स्वयं तो अपने आप ही कहते नहीं है । कारण कि शब्द जड हैं। उसी प्रकार आपके " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " ये जडसूप वाक्य मी स्वयं अर्थनान नहीं करा सकते हैं । गौको ले जाओ । घरको साओ, ये लौकिक वाक्य भी बिना संकेतके अर्थबोध स्वयं नहीं करा सकते हैं। अन्यथा दो महिनेके बच्चेको भी शब्द सुनकर अर्थज्ञान होजाना चाहिये था, अथवा यह शंका मीमांसककी तरफसे न होकर किसी सटस्थकी ओरसे है । वह बेदके वाक्योंको भी स्वतः अर्थज्ञान करानेवाला नहीं मानता है। यदि स्याद्वादी आप यो कहेंगे कि हम लोगों को विद्वान पुरुषों के व्याध्यान करनेसे प्राचीन उपदेशरूप सूत्रोंके अर्थका निर्णय होजाता है। ऐसी दशा में पूछता हूँ कि वह व्याख्याता पुरुष यदि सर्वज्ञ नहीं है और रागी, द्वेषी है, तब तो उसके व्याख्यानसे अर्थका निश्चय होना असिद्ध है। कारण कि श्रोताओंको रागी और अज्ञानीके कपनमें सत्यार्थकी शंका बनी रहती है । अनेक पुरुष राग और अज्ञानके वश होकर झंठा उपदेश देते हुए देखे जारहे हैं । इस दोष निवारणार्थ यदि आप उस सूत्रका व्याख्यान करनेवाला सर्वज्ञ और वीतराग जिनेन्द्र देवको मानोगे तो आपने इस देशमें आजकल जिनेन्द्रदेवका वर्तमान रहना अपनी इच्छासे स्वीकार नहीं किया है। जिससे कि उस सूत्रार्थका निश्चय होसके, यों सूत्रके अर्थका निश्चय कैसे हो सकेगा । बताओ। यहांतक किसी प्रतिवादीकी शंका है। तदसत् । प्रकृतार्थपरिज्ञाने तद्विषयरागद्वेषामाचे च सति तद्याख्यातुर्विप्रलम्भनासम्भवात्तयाख्यानादर्थनिश्चयोपपत्तेः । तब आचार्य कहते हैं कि किसीकी वह उक्त शंका ठीक नहीं है। क्योंकि-यधपि यहां इस समय केवलज्ञानी नहीं हैं फिर भी प्रकरणमें प्राप्त मोक्षमार्गरूपी अर्थको पूर्ण रूपसे जाननेवाले विद्वान् धाराप्रवाइसे विद्यमान हैं और उस मोक्षमार्ग विषयक बताने उनको राग, द्वेष मी नहीं है। ऐसे व्याख्यान करने वालोंके द्वारा वञ्चना या धोका करना सम्भव नहीं है। प्रत्युत गम्भीर व्याख्यातासे अर्थका निश्चय हो जाना ही सिद्ध है । जो जिस विषयमें रागी, द्वेषी, अहानी नहीं है ऐसा होते ते उस व्याख्याताके व्याख्यानको स जन प्रमाणरूपसे ग्रहण कर लेते
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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