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________________ है। पं. गोपालदासजी बरयाने मी न्यायशास्त्रका कमी कभी परिशीलन आपसे किया था। इतने कहने मानसे आपकी अगाध विद्वत्ता के संबंध अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। अंबू विषालय सहारनपुरमें प्रधान अध्यापकके स्थानपर रहकर मापने सेकडो विद्वानोको तैयार किया | आपकी अगाध विद्वत्तासे जैन समाजका बालंगोपाल परिचित है : आपने इस श्लोकवार्तिकालंकार सदस ग्रंथकी भाषारीका लिखकर स्वाध्यायप्रेमियों के प्रति अनंत उपकार किया है । श्रीन्यायाचार्यजीने छोटी मोटी अनेक पुस्तके लिखी है, परंतु इस महान् ग्रंथकी टीका लिखकर अपनी लेखनीको सफल बनाया है। क्योंकि यह हजारों वर्ष अव्याहत प्रवाहित होकर रहनेवाली एवं असंख्य तत्वजिज्ञासुबोको तृप्त करनेवाली यह ज्ञानधारा है। इस अमृतधाराको सिंचितकर भन्योंको तृप्त करनेके श्रेयको मास करने के लिए न्यायाचार्यजीने कई वर्ष तपश्चर्या की है। उनकी कठिन तपश्चर्याका ही यह मधुरफल है कि आज यह ग्रंथ विद्वसंसारको आस्वादनके लिए मिल रहा है। . पदर्शनोंके अतिरिक्त पण्डितजी व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त तथा अन्य गणित, विज्ञान आदिमें भी गम्भीर प्रतिमायुक्त हैं । पण्डितजीने प्रत्येक सूत्र के आदि अन्त तथा अध्यायों के पहिले पीछे भी सारगर्मित पाण्डित्यपूर्ण स्वरचित संस्कृतपद्योंकी रचना भी करदी है। ___अन्य काव्य ग्रंथों या कथासाहित्यकी भाषाटीका जितनी दय नरम होती है, दर्शन शाबोंकी भाषाटीकायें उतनी सरल नहीं होती हैं । फिर भी पण्डितजीने कठिन पंक्तियोंकी सुबोध्य टीका बनानेमें कोई कसर नहीं छोड़ी है । स्वाध्याय करनेवाले निरालस होकर उपयोग लगावें । यदि परीक्षामुख और न्यायदीपिकाका अध्ययन काले तो पर्याप्त अधिकारिता प्राप्त होजावेगी । इस महाग्रंथमें प्रवेश करनेके लिये पण्डितजी " दर्शनविदर्शन " पुस्तकको लिख रहे हैं। आधी लिख चुके हैं। श्रीमाननीय पंडितजीने अपनी अगाध विद्वत्ताको पुजीकृत कर इस प्रथम ओत प्रोत करदिया है । उनके अनुभवका लाभ आज इस रूपमें विद्वत्ससारको न होता तो वहा पश्चाताप करना पड़ता । उनका अनुभव, ज्ञान, विचारपारा, तणाशक्ति, आदि सभी उनके व्याख्यानोम ही विसरकर पड़े रहते । शब्दवर्गणार्य अनित्य हैं, उनको कुछ समय के लिए क्यो न हो नित्य बनाने के लिए यही प्रकिया उपादेय है । अतः न्यायाचार्यजीने वर्षों तक घोर परिश्रमकर इस ग्रंथकी टीका लिखी है, उनके प्रति कृतज्ञताके सिवाय हम क्या व्यक्त कर सकते हैं। हमारे समान ही विद्वसंसार, तत्वाभ्यासी, एवं भविष्यमे होनेवाले सर्व मुमुक्षुजीव आपके प्रति कृतज्ञता व्यक्त किये विना न रहेंगे। प्रकाशनका इतिहास इस महान् अंथके प्रकाशनका सर्व श्रेय श्रीमान् धर्मवीर रा. क. रा. भू. केप्टन सर सेठ मागचंदजी सोनी 0.13. E5. जो आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमालाके अध्यक्ष है, को ही है। क्योंकि सर सेठ साहबकी ही प्रबलप्रेरणा व साहित्यमेमसे यह ग्रंथ प्रकाशनमे आ रहा है। सर सेठ साहनको भावना थी कि श्रीसिद्धांतमहोदधि पं. माणिकचंदजी न्यायाचार्य जैसे महान विद्वानोंकी
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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