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तत्याच चिन्तामणिः
. विशेषतश्च त्रयस्थाचारित्रेऽन्तर्भावने को दोष इति चेत्-
यहां किसीकी शंका है कि आप जैनोंने प्रमाद आदि तीनको सामान्यप्रनेसे अवार गर्भित किया | क्यों जी ! और विशेषरूपसे तीनोंका अचारित्र में अन्तर्माव करनेपर क्या दोष आंत है ! तलाइये ! ऐसी आशंका होनेपर आचार्य महाराज उत्तर देते हैं ।
विशेषतः पुनस्तस्या चारित्रांतःप्रवेशने ।
प्रमत्तसंयतादीनामष्टानां स्वादसंयमः ॥ १०८ ॥ तथा च सति सिद्धांतव्याघातः संयतत्वतः । मोहद्वादशकध्वंसात्तेषामयमहानितः ॥ १०९ ॥
यदि फिर विशेषरूप से उन तीनोंका अचारित्रके भीतर प्रवेश किया जावेगा तो छठे गुण-" स्थानवर्ती प्रमत्तसयतको आदि लेकर तेरहवे गुणस्थानी सयोगकेवली पर्यन्त आठ संयमियोंके असंयमी बन जानेका प्रसंग हो जायगा, और वैसा होनेपर जैनसिद्धांत का व्याघात होता है। क्योंकि जैन सिद्धांत उक्त आठोंको संयमी कहा गया है। अनंशानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणकी चौकडी इन मोहनीय कर्मकी बारह प्रकृतियोंके क्षयोपशम, उपशम, और क्षयरूप हास हो जाने के कारण उन आठोंको असंयमीपनकी हानि है । भावार्थ - ये आठों ही संयमी माने गये हैं। प्रमाद, कषाय और योगोंको सामान्यपने के समान यदि विशेषरूप से भी अचारित्र माना जाता तो ये आठों असंयमी बन जायेंगे। इस प्रकार जैन सिद्धांतों तत्त्व बिगडता है।
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FM.M नन्वेवं सामान्यतोऽप्यचारित्रे प्रमादादित्रयस्यतर्भावात्कर्थं सिद्धांतव्याघातो न स्वाद : प्रमचसंयतात्पूर्वेषामेव सामान्यतो वा सर्वातिर्भाविवचनाद, प्रेमसंयतादीनां तु सयोग केवल्यन्तानामष्टानामपि मोहद्वादशकस्य क्षयोपशमादुपशमाद्वा सकलमोहस्य याद्वा संयतत्वप्रसिद्धेः, अन्यथा संयतासंयत्तत्वप्रसंगात्, सामान्यतोऽसंयतस्यापि तेषु भावादिति केचित् ।
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ऐसा सिद्ध करनेपर भी फिर कोई इस प्रकार शंका करते हैं कि प्रमाद आदि चीनका अचारित्र सामान्यपने से भी अन्तर्भाव करने से क्यों नहीं सिद्धांत का व्याघात होगा ? जब कि आप जैन बाटो गुणस्थानों में मोहनीयकी बारह प्रकृतियोंका ह्रास मानते हैं तो सामान्यरूपसे भी उन आठों में अचारित्र नहीं रहना चाहिए। जैन सिद्धांन्त में चारित्र नहीं रहना मामा है दोनों प्रकारसे माना है । प्रमत्तसंयतनामक उठे गुणस्थान से पहिले के प्रथमसे लेकर पांच गुणस्थान तक पांचों हीका दोनों सामान्य और विशेषरूपसे अचारित्रः - अंतर्भाव कहा देव
तो जहां मी
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