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तस्वाचिन्तामणिः
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तथा जब किसी आत्मामें सीधा मोक्षका विधान किया जायेगा, तब तो यह विधिसापक कारणोपलब्धि हेतु है कि किसी आत्मामें मोक्ष अवश्य होनेवाला है ( पतिमा) क्योंकि उसमें सम्पादर्शन आदि गुणोंका संबंध होगया है (हेतु)। वहां मोक्षके कारण सम्यग्दर्शन आदि हैं। अतः छत्र हेतुसे छायाकी सिद्धि के समान कारण हेतुसे मोशकी सिद्धि होजाती है । मोक्षके सम्प. वर्शन आदि कारक हेतु हैं और ज्ञापक हेतु मी है। इस प्रकार कैसे भी उभास्वामी महाराजका यह सूत्र अयुक्तिरूप नहीं है । भावार्थ-अनेक हेतुओंसे सिद्ध होकर युक्तियों से परिपूर्ण हैं। और यह पहिला सूत्र सर्वज्ञोक्त आगम स्वरूप को है ही। इस बातका हम पहिले प्रकरणमे निरूपण करचुके हैं। ऐसे मले प्रकार सूत्रकी सिद्धि होजानेपर अब विस्तारका व्यर्थ ताण्डव बढानेसे विश्राम लेना चाहिये । कुछ अधिक प्रयोजना हि न होगा।
बन्धप्रत्ययपाञ्चध्यसूत्रं न च विरुध्यते ।
प्रमादादित्रयस्यान्तर्भावात्सामान्यतोऽयमे ॥ १०७॥ ___ जब कि आप जैनबंधु संसार और मोक्षके कारण तीन मानते हैं तो आठवें अध्यायमें कई जानेवाले बन्धके कारणोंको पांच प्रकारका कहनेवाले सूत्रसे विरोध हो जावेगा, सो नहीं समझना । क्योंकि पंधके कारणों को कहनेवाले सूत्र में पड़े हुए प्रमाद, कषाय और योग तीनोंका सामान्यरूपसे अचारित्र अन्तर्भाव हो जायेगा। इस कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याचान और मिथ्याचारित्र ये तीन ही संसारके कारण सिद्ध हुए।
त्रयात्मकमोक्षकारणसूत्रसामर्थ्यात्त्रयात्मकसंसारकारणसिद्धी युक्त्यनुग्रहाभिधाने बंधप्रत्ययपंचविधत्वं 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतव ' इति सूत्रनिर्दिष्ट न विरुध्यत एव, प्रमादादित्रयस्य सामान्यतोऽचारित्रेऽन्तर्भावात् ।।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तीनोंकी एकता-स्वरूप मोक्षके कारणको निरूपण करनेवाले सूत्रकी सामथ्र्यसे तीनस्वरूप ही संसारके कारणों की सिद्धि युक्तियोंकी सहायताका कथन करनेपर मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच बंधके कारण हैं । इस प्रकार सूवमें कहे गये पके कारणोंका पांच प्रकारपना विरुद्ध नहीं ही होता है। क्योंकि प्रमाद आदि सीन पानी प्रमाद, कषाय और योगका सामान्यपनेसे अचारित्रमें गर्म हो जाता है । अर्थात् जैसे पहिले गुणस्थानका अनारित्र और चौका अचारित्र अंतरंग कारणकी अपेक्षासे एक ही है। वैसे ही चारित्र मोहनीयके उदयसे होनेवाले प्रमाद और कपाय भी एक प्रकारसे अचारित्र है । ग्यारहवे, बारहवें और मेरहवें गुणस्थान मारित्रमोहनीयका उदय न होनेसे यधपि. अधारित्रभाव नहीं है । फिर मी चारित्रकी पूर्णता जब चौदहवें गुणस्थानी मानी गयी है। इस अपेक्षासे चारित्रकी विशेष स्वमावोंने टिका अचारित्रमें अंतर्भाव हो जाता है। योग भी एक प्रकारका प्रचारित्र है।