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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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अथवा दूसरा अनुमान यह है कि संसार के कारण कहे गये मिथ्याभिनिवेश, अर्थोको झूठा जानना तथा राग द्वेष, अमस आदि इन तीन शक्तिस्वरूप एक विपर्ययकी ठीक निवृति होना ( पक्ष ) अपने विधास्वरूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, इन तीन शक्तिरूप एक रत्नत्रयात्मक आत्मद्रव्यके बिना नहीं बन सकता है ( साध्य ) संसार कारणोंकी सर्वथा निवृत्ति होनेसे ( हेतु ) इस प्रकार दो अनुमानोंसे सूत्रकारका तीनरूप मोक्षमार्गका उपदेश देना युक्त है ।
तत्र यदा संसारनिवृत्तिरेव मोक्षस्तदा कारणविरुद्धोपलब्धिरियं नास्ति कविसंसारः परमसम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रसद्भावादिति ।
उस अनुमानके प्रकरणमें जब संसारकी निवृद्धिको ही मोक्ष माना जाये, तब तो यह निषेधका कारण विरुद्धोपलब्धिरूप हेतु है कि किसी विवक्षित एक जीव ( पक्ष ) संसार विद्यमान नहीं है ( साध्य ) क्योंकि उत्कृष्ट श्रेणीके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र वहां विद्यमान हैं ( हेतु ) । इस अनुमानमै संसारका अभाव साध्य है । निषेध करने योग्य संसार के कारण मिथ्यादर्शन आदि तीन हैं। उनके विरुद्ध सम्यग्दर्शन आदि तीनकी उपलब्धि हो रही है, अतः यह कारण विरुद्धोपलब्धि हेतु है । प्रतिषेध्य के जो कारण उनके विरुद्धोंकी उपलब्धि होना है । यदा तु संसारनिवृचिकार्ये मोक्षस्तदा कारणकारणविरुद्धोपलब्धिः, कस्यचिदात्मनो नास्ति दुःखमशेषं मुख्य सम्यग्दर्शनादिसद्भावादिति निश्चीयते, त्यन्तिक सुखस्वभावत्वात्तस्य च संसारनिवृत्तिफलत्वात् ।
सकलदुःखाभावस्या
किंतु जब मोक्षा संसारकी निवृचिका कार्य माना जाता है, तब तो यह हेतु कारणकारणं विरुद्धोपलब्धिरूप है कि किसी न किसी आत्मा के सम्पूर्ण दुःख नहीं हैं ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि उस आत्मामें प्रधानरूपसे सम्यग्दर्शन आदि तीन गुण विद्यमान हैं ( हेतु ) यहां दुःखोंका अभाव साध्य है, दुःख प्रतिषेध्य है । दुःखका कारण संसार है और उसके कारण मिथ्यादर्शन आदि है । उनसे विरुद्ध सम्यग्दर्शन आदिकी उपलब्धि हो रही है । यों प्रकृत हेतु कारणकारण विरुद्धोपलब्धि रूप निश्चित किया जाता है । सम्पूर्ण दुःखोंके अभावको आत्यन्तिक सुख स्वभावना है और वह आत्माका अनंत कालक सुखस्वभाव हो जाना संसारकी निवृतिका फल है । नैयायिकों का माना गया दुःखध्वंसरूप मोक्ष हमको अभीष्ट नहीं है । दुःखाभाव अनंतसुखस्वरूप है । अभाव वस्तुस्त्ररूप है। वैशेषिकों का माना गया तुच्छ अमाव कुछ नहीं हैं
यदा मोक्षः क्वचिद्विधीयते तदा कारणोपलब्धिरियं कचिन्मोक्षोऽवश्यंभावी सम्यदर्शनादियोगात् इति न कथमपि सूत्रमिदमयुक्त्यात्मकं, आगमात्मकत्वं तु निरूपितमेचं सत्यलं प्रपंचेन ।