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तत्वावचिन्तामणिः
छठेसे लेकर तेरहवें तक तो अचारित्रमै गर्भ नहीं कहा है। प्रमत्तसंयतको आदि लेकर सयोगकेवळी पर्यत आठों मी गुणस्थानवालोंको संयमीपना प्रसिद्ध है। इनमें गारित्रमोहनीयकी पहिली बारह प्रकृतियों के क्षयोपशमसे छटे, सावन संगमीपन है । एक अपेक्षासे दशतक भी पारित्रमोहनीयका क्षयोपशम है । क्योंकि वहां देशघातियोंका उदय रहता है। और उपशमश्रेणी के भाषे, नावे, दशमें और मुख्यरूपसे म्यारहवेमें सम्पूर्ण मोहनीयफर्मका उपशम होजानेसे संयमीपना है तथा क्षपकश्रेणीके आठवे, नौवे, यशव और प्रधानरूपसे बारहवेमे सम्पूर्ण मोहनीय कर्मका क्षय होजानेसे मुनिमहाराजोको संयमीपना प्रसिद्ध है | यदि ऐसा न माना जाकर दूसरे प्रकार माना जावेगा अर्थात् आप वादी जैनोंके कथनानुसार आठ गुणस्थान में सामान्यरूपसे अचारित्र भाव मी मानकिया आवेगा तो पांचये गुणस्थानके समान ये आठों बीतासं होगा। योपिकमला साट आपके कहे अनुसार सामान्यपनेसे असंयममाय मी उनमें विद्यमान है । इस प्रकार कोई श्वेतपयानुयायी कह रहे हैं। अब प्राचार्य कहते हैं कि:
तेऽप्येवं पर्यनुमोज्याः कथं भवता चतुम्मत्ययो बन्धः सिदान्तविरुदो न भवेत्तत्र तस्य सूत्रितस्वाद इति ।
उनके ऊपर भी इस प्रकार कटाक्षरूप प्रश्न उठाने चाहिये कि आपके यहां मिथ्यावर्शन, अविरति, कषाय और योग इस प्रकार बंधके चार कारण माननेपर सिद्धांतविरोध क्यों नहीं होगा। क्योंकि आपके उस सिद्धांत बंधके चार कारणोंको सूचन करनेवाला वह सूत्र कहा गया है। भावार्थ-शंकाकारको मी प्रमादका अचारित्रम गर्भ काना मावश्यक होगा।
प्रमादानां कषायेष्वन्तर्भावादिति चेह, सामान्यतो विशेषयो वा वत्र सेषामन्तर्भाव स्यात् ? न तावदुचरः पक्षो निद्रायाः प्रमादविशेषस्वभाषायाः कषायेष्वन्तर्मावयितुमशस्यत्वात् तस्या दर्शनावरणविशेषस्वात् ।
बदि आप श्वेतांवर प्रमादोका कमायोमे बनींब करोगे तो इसपर हम पूंछते हैं कि उन धमादका भाप उन कायमें सामान्यरूपसे अंतर्मान करेंगे या विशेषरूपसे अन्तर्माय होगा ! बतायो ! इन दोनों पक्षामें दूसरा पक्ष लेना तो ठीक नहीं है। क्योंकि निद्रा मी पंद्रह प्रमादोमसे चौदहवीं विशेष प्रमादरूप है । उसका कषायोंमें अंतर्भाव करना शक्य नहीं है। क्योंकि निद्राका कषायोंको उत्तम करनेवाले चारित्रमोहनीय कर्मसे कोई सम्बन्ध नहीं है । वह निद्रा तो दर्शनावरण कर्मकी एक विशेष प्रकृति है या उस प्रकृतिके उदय होनेपर होजानेवाला मामाका दिभाव है।
प्रमादसामान्यस्य कमायेप्यन्ताव इति चेत् न, अप्रमचादीनां बापसापरामिकाम्वाना प्रमचस्वप्रसंगाद, प्रमादेकदेवस्यैव कायस्य निद्रामात्र तत्र सद्रावात सर्वप्रमादा