SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 568
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नाममात्राम अमरत्वप्रसक्किरिति चेत्, वहिं प्रमादादिप्रयास्याचारित्रेऽन्तर्भावेऽपि प्रमचसंपतादीनामधानामसंयवत्वं मा प्रापत् । हम विशेष विशेष प्रमादोंका कार्योंमें अंतर्भाव नहीं करते हैं किंतु प्रथमपक्ष के अनुसार अमावसामान्यका कमायो गर्भ करते हैं। इस प्रकार शंकाकारका कहना भी तो ठीक नहीं पड़ेगा। "क्योंकि सासर्वे गुणसानवाले अपमयको मादि लेकर सूक्ष्मसांपराविक गुणस्तान पर्वतके ममियोको धमापनेका प्रसंग होगा, क्योंकि कषायके उदयके वारसम्पसे होनेवाले सातवें, माठ, नौवे और दश गुणस्थानमें पंद्रह प्रमारोंके ही एकदेशरूप कषायोंका और निद्राका उन चारों गुणस्थानों उदय विधमान है । अतः ये चारों गुणस्थान छठ के समान प्रमच शेजावेंगे । यदि भाप फिर बों कहै कि सातवे आदि पार गुणस्थानाम किया, कषाय, इंद्रिय, निद्रा और स्नेह ये सम्पूर्ण प्रमाद तो नहीं है। अतः चार गुणस्यानोको प्रमत्तपनेका प्रसंग नहीं माना है। धब ऐसा कहनेपर सो हम दिगम्बर जैन मी कहते हैं कि प्रमाद आदि मानी ममाद, कषाय, योग वीनोंका सामान्यरूपसे भचारित्र गर्भ होनेपर मी छठसे लेकर तेरहवें सकके माठ संयमियोंको असंयमीपना इसी प्रकार नहीं पास होओ। फिर भाप शंकाकारने हमारे ऊपर व्यर्थ भाठोंको असंयमी होनेका विना बिचारे कटाक्ष क्यों किया । उसको आप कौटा कीजिये। स्थाहि-पम्चदशसु प्रभादव्यक्तिषु वर्तमानस्य प्रमादसामान्यस्म कमायेचन्ता मावेऽपि न सा व्यक्तयस्त्रान्तर्भवन्ति विकथेन्द्रियाणामप्रमत्तादिग्वभावात् , कषायप्रणपनिद्राणामेव संभवात् , इति न तेषां प्रमचत्वम् । तथा मोहद्वादशकोदयकालभाविषु सत्योपशमकालभाविषु च प्रमादकपाययोगविशेषेषु वर्तमानस्य प्रमादकपाययोगसामान्मस्पाचारित्रेऽन्तर्भावेऽपि न प्रमत्तादीनामसंयतत्त्वम् । इसी मातको अधिक सष्ट कर आचार्य महाराज दिखलाते हैं कि आप शंकाकार पंद्रह प्रमादविशेषों में विद्यमान होरहे ऐसे प्रमादसामान्यका कषायों में अन्तर्भाव करते हुए भी यह मानते है कि सम्पूर्ण पंद्रह मी प्रसाद व्यक्तिरूपसे उस कषायम गर्भित नहीं होते हैं। क्योंकि चार किया और पांच इंद्रिय ये नौ प्रमाद अप्रमत्त मादि चार गुणस्थानों में विद्यमान नहीं है। चार सज्यरून कवाय, स्नेह और निद्रा ये छह प्रमाद ही वहां सम्भवते हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण प्रमादोंके न रहा नेसे उन सातवें आदि चारोंको जैसे आप प्रमत्त नहीं मानते हैं, वैसे ही हम मी कहते हैं कि मोहनीय कर्मको बारह प्रकृतियोंके उदय के समय होनेवाले पहिले दूसरे गुणस्थानके प्रमाद, कपाय, मोग, व्यकियों में जो ही प्रमाद, कमाय, योग, सामान्य विद्यमान है, मोहनीयकी बारह प्रकृसियोक क्षयोपशमके समय होनेवाले चौथे, पांचवे, छठे और निरतिशय सातवे गुणस्थानों में रहनेवाले प्रमाद, माम, योग, व्यक्तियों में भी वही सामान्य विषमान है। अतः सामान्यरूपसे प्रमाद, कमाम
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy