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चिन्तामणिः
योगका परियोग होते हुए आदि आठोंको असंयमीपना प्राप्त न होगा जो आपने तर्क दी है वही यहां भी लागू हो जाती है। तुम्हारी सपिल्ली और मेरा, सुंदर, मनोश, चहरासाई रुपैया है, यह पक्षपात आपको नहीं चलाना चाहिये ।
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स्यान्मतं प्रमादादिसामान्यस्यासंयतेषु संयतेषु च सद्भावादसंयमे संयमे चांतर्भावो युक्तो न पुनरसंयम एव, अन्यथा वृक्षत्वस्य न्यग्रोधेऽन्तर्व्यापिनोऽपि न्यग्रोधेष्वेवांतर्भाव - प्रसक्तेरिति ।
सम्भव हैं कि आप शंकाकारका यह भी मत होवे कि प्रमाद, कषाय और योग इन तीन सामान्यका पहिलेके चार असंयत गुणस्थानों में तो सद्भाव है ही तथा अब संयमियों में मी उनको देखिये कि प्रमाद सामान्यका देशसंयत पांचवें और छठवें संयमी गुणस्थान में सद्भाव है तथा कषाय छठे दश गुणस्थान तकके संयमियों में विद्यमान है । एवं योग छठेसे लेकर तेरहवें तकके संयमियों में पाया जाता है । इस प्रकार सामान्यरूपसे प्रमाद आदि तीन तो संयत और असंयत दोनों प्रकारके जीवों में पाये जाते हैं । तब ऐसी दशा में प्रमाद आदिका चारित्र और अचारित्र दोनों में अन्तर्भाव करना युक्त था । अकेले अचारित्र में ही उनको गर्भित करना अनुचित है । यदि ऐसा न मानकर आप जैन दूसरे प्रकारसे मानोगे यानी अनेकों में रहनेवाले सामान्य धर्मको एक ही विशेषव्यक्ति यर्मित कर लोगे तो निम्ब, वट, आम्र, जम्बू, छत्र, खदिर पेडों में रहनेवाला gure सामान्य विचारा वटवृक्षके भीतर भी व्यापक होकर विद्यमान है। अतः उस अनेकों में रहनेवाले वृक्षस्य सामान्यका भी अकेले वटवृक्षमें ही गर्मित करनेका प्रसंग हो जायेगा अर्थात् वही वृक्ष कहा जावेगा । निम्ब, जामुन, आदि पेढ न कहे जा सकेंगे, इस प्रकार शंकाकारका कहना है । अब मंथकार कहते हैं कि :
तदसत् विवक्षितापरिज्ञानात् । प्रमादादित्रयमसंयमे च यस्यान्तर्भावीति तस्य नियतत्वात्तत्रान्तभवो विवक्षितः प्रमादानामप्रमत्तादिष्वभावात् कषायाणामक पायेष्वसुम्भवात्, योगानामयोगेऽनवस्थानादिति तेषां संयमे नान्तर्भावो विवक्षितः ।
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वह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि हमारे कहने के अभिप्रायको आपने समझा नहीं है। जिस जैनके यहां प्रमाद, कषाय और योग ये तीनों असंयममें गर्मित हो जाते हैं उसके मटमें वे तीनों ही असंयम तो नियमसे विद्यमान हैं। इस कारण उस असंयममें गर्भित करना हमको विवक्षित है। बंधके कारणों में कदे गये मिथ्यादर्शन आदि पांचके पूर्व पूर्व कारणके रहनेपर उत्तरवर्ती. कारण. अवश्य रहते हैं। मिथ्यादर्शनको कारण मानकर जहां बंध हो रहा है, वहां शेषवारी भी विद्यमा है तथा मिध्यादनकी व्युच्छित्ति होनेपर दूसरे, तीसरे, चौथे गुणस्थानमें अविरति निमित्तले बंध हो रहा है, वहां शेष तीन कारण भी विद्यमान हैं। एवं पांचवें छठवें में प्रमादः हेतुसे बंघ होनेपर कमाय