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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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नहीं है । औपशमिक आदि पांचों प्रकारके भाव आस्माके तदात्मक तत्त्व है । उस कारण सिद्ध हुआ कि भोग या अनुभवन करनेवाले आत्माका उस महंकार के साथ एकार्थपना अपद्रव्यसे माया हुआ औपाधिक भाव नहीं हैं किंतु आत्मा के घरका है। जिसके कि कर्तापनके समान अहंकारीपन भी निर्वाध होकर आत्माका स्वभाव न बने । अर्थात् प्रकरणमें अहंकारका अर्थ अभिमान करना ही नहीं है, किंतु आत्मगौरव और आत्मीय सत्ताके द्वारा होनेवाला मैं का स्वसंवेदन करना है। मैं केवलज्ञानी हूं, मैं क्षायिक सम्यग्दृष्टि हूं, मैं सिद्ध हूं, मैं मार्दव गुणवाला हूं, इस प्रकारका वेदन मुक्त जीव भी विद्यमान है । मोक्ष अवस्थामै इच्छा नहीं है, ज्ञान और प्रयत्न हैं । इच्छा मोइका कार्य है, किंतु ज्ञान और यत्न वो चैतन्य, वीर्ये, इन आत्मगुणोंकी पर्यायें हैं।
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न चाभ्रान्ताहंकारास्पदत्वाविशेषेऽपि कर्तुत्वानुभवितृत्वयोः प्रधानात्मकत्वमयुक्तम्, यतः पुरुषकल्पनमफलं न भवेत्, पुरुषात्मकत्वे वा तयोः प्रधानपरिकल्पनम् । तथाविषस्य 'चासतः प्रधानस्य गगनकुसुमस्येव न श्रेयसा योक्ष्यमाणता ।
"मैं कता हूं, मैं चेतयिता भोक्ता हूं इस प्रकार फर्तापन और भोक्तापनको भ्रांतिरहित अहंकार के समानाधिकरणकी समानता होनेपर मी दोनोंको प्रकृतिस्वरूप ही आपादन करना अयुक्त नहीं है जिससे कि सांख्यों के यहां आत्मतत्त्वकी कल्पना करना व्यर्थ न होवे | अथवा उन दोनोंको यदि पुरुषस्वरूप मान लिया जाये तो तेईस परिणामवाले प्रकृतितत्त्वकी भूमिका सहित कल्पना व्यर्थ न हो | भावार्थ — कर्तापन और भोक्तायन एक ही द्रव्यमें पाये जाते हैं । अतः प्रकृति और आमासे एक ही तत्त्व मानना चाहिये, आस्मा मानना तो अत्यावश्यक है । हम और तुम आत्मा ही सो हैं । तब आपका अहंकार, सुख, दुःख परिणति से परिणामी माना गया प्रधान ही आकाशके फूलके समान असत् पदार्थ हुआ, उस असत् पदार्थका कल्याणमार्ग से भविष्य में युक्त होनापन नहीं बन सकता है ।
पुरुषस्य सास्तु इति चेन्न, वस्यापि निरतिशयस्य मुक्तावपि तत्प्रसंगात् तथा च सर्वदा श्रेयसायमाण एव स्यात्पुरुषो न चाऽऽयुज्यमानः ।
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वह कल्याण मार्गसे युक्त होनेका अभिकापीपना आत्माके मान लिया जाये, इस प्रकार सांख्योंका कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि कापिलोंने पुरुषको कूटस्थ नित्य माना है । आस्मा कोई धर्म या अतिशय घटते बढ़ते नहीं है। वेके वे ही स्वभाव सदा बने रहते हैं ।
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यदि पुरुषकी कल्याणमार्ग से माविनी अभिलाषुकता मानोगे तो मोक्षमें भी भविष्य में कल्याण मार्ग से युक्त हो जाने की उस अभिलाषा विद्यमान रहनेका प्रसंग होगा। क्योंकि आपका आस्मा सर्वदा एकसा रहता है । सब तो आत्मा मोक्षमार्गका सदा अभिलाषी ही बना रहेगा । सब ओरसे कल्याणमार्गमें लग जाना और लग चुकनापन कभी नहीं पाया जा सकेगा । दीर्घ संसारीका कल्याण