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________________ . सत्त्वार्थचिन्तामणिः वेदका वचन असत्य अर्थको कैसे भी ( बिलकुल ) न कह सकेगा अर्थात जो वेदका वाक्य है वह झूठे अर्थका प्रतिपादक नहीं और जो असत्य अर्थमा वानक है बह अपौरुषेय वेदका वाक्य नहीं है । इसपर आचार्य कहते हैं कि यहां विप्रतिषेध नामका विरोध नहीं है जिससे कि वेदका व्याख्यान असर्वज्ञ रागियों के द्वारा किया गया होकर झूठा न हो सके । अर्थात् अपौरुषेय वचन भी असत्य अर्थको कह सकते हैं। एक पक्षी । काला तीतर) ने गटरगट ऐसा अव्यक्त शब्द बोला था । किसीने “ खुदा तेरी कुदरत " और दूसरेने " रामचन्द्र दशरथ " तीसरे मल्लने दंड कुस्तीकसरत अर्थ निकाल लिया था । रागी, अज्ञानी व्याख्याता वेदवाक्योंसे मनचाहा चाहे जैसा झूठा अर्थ निकाल लेते हैं और वेद मी सर्वज्ञोक्त न होनेसे अनेक चार्वाक, ( जडवाद ) अद्वैत ( सात्मवाद ) एवं सांख्य, नैयायिक तथा हिंसा अहिंसा और कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड आदि विरुद्ध मंतव्योंको पुष्ट कर रहा है। लौकिकमपि हि वचनमर्थं ब्रवीति, बोधयति, बुध्यमानस्य निमित्तं भवतीत्युच्यते विवधार्थाभ्यधायि च दृष्टमविप्रतिषेधात् , तपथार्थ ब्रवीति न तदा वितथार्थाभिधायि, यदा तु बाधकप्रत्ययोत्पत्तौ वितथार्थाभिधायि न तदा यथार्थ ब्रवीत्यविप्रतिषेधे, वेदवचनेऽपि तथा विप्रतिषेधो मा भूव । इस लोकमै साधारणजनताके वचन भी अर्थको कहते हैं अर्थात् उन शब्दोंसे अर्थका ज्ञान कराया जाता है । इस कथनमें भी यह तात्पर्य कहना चाहिए कि उच्चारण करनेवाले मनुष्यों के शब्द श्रोतासे जाने गये अर्थके निमित्त कारण हो जाते हैं । अनेक गोत्रस्खलम आदि प्रकरणों में कहा कुछ जाता है और मिन्न अर्थ समझा जाता है । इस कारण सिद्ध हुआ कि शब्दकी सत्यार्थ वाचकताके निमित्तपनेके नियमका व्यभिचार है, और तभी तो वे शब्द झूठे अर्थके कहनेवाले देखे गये हैं । अतः साधारण पुरुषके वचनके समान असत्य अर्थ कहनेमें वेदवाक्योंका कोई तुल्यबल वाला विरोध नहीं है। यदि यहां मीमांसक यह कहे कि लौकिकमनुष्यों के बचन ठीक उच्चारण करते समय जब अर्थको कह रहे हैं उस समय ये ठीक ही ठीक अर्थक बाचक हैं । झूठे अर्थको कुछ भी बिल्कुल, नहीं कहते हैं । और जब यह पदार्थ वह नहीं है जो कि वचनके द्वारा कहा गया था ऐसे राधक शानके उत्पन्न हो जानेपर वे शब्द झूठा अर्थ कह रहे हैं उस समय तो वे वचन वास्तविक अर्थको नहीं कहनेवाले माने गये हैं । इस प्रकार यदि विप्रतिषेध दोषका वारण किया जाय तब वेदफे शब्दोंमें भी उस प्रकार अर्थ कहनेपर भी विप्रतिषेध-नामका विरोध न हो सकेगा, अर्थात् बेदके शब्द भी जब ठीक अर्थको कह रहे हैं तब झंठे अर्थको नहीं कह रहे हैं और जब बाधकज्ञानके १५
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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