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________________ सत्यार्थचिन्तामणिः .....animandarm...mamm %3D जासकता है। यदि आप सर्वज्ञको मानते होते तब तो उसके व्याख्यानकी आम्नायसे आज तक के व्याख्याता विद्वानोंका विश्वास किया जाता, किंतु आप सम्पूर्ण व्याख्याताओंके आदिगुरु सर्वज्ञको मानते नहीं हैं। अतः जन्मसे अन्धे पुरुषका रूपगुणके विशेष हो रहे काले, नीलेपनका और उनकी तरतमताके व्याख्यान करनेमें जैसे विश्वास नहीं किया जाता है, उसी प्रकार आपके वेद व्याख्याताओंका भी विश्वास नहीं किया जा सकता है। न च ब्रह्मा मन्वादिर्वातीन्द्रियार्थदर्शी रागद्वेषविकलो वा सर्वदोपगतो यतोऽस्मातात्ययिताच्चोदनाव्याख्यानं प्रामाण्यमुपेयादित्युक्तं प्राक् । आपने अक्षा तथा मनु आदि ऋषियोंको वेदका व्याख्याता तो माना है किंतु अतीन्द्रिय अोंका देखनेवाला और रागद्वेषसे रहित ऐसा कोई भी ब्रह्मा, मनु, आदि पुरुष सब कालों में नहीं स्वीकार किया है, जिससे कि सर्वज्ञ, वीतरागपनेसे विश्वासको प्राप्त इस ब्रह्मा आदिकसे किया गया वेदवाक्योंका व्याख्यान प्रमाणपनेको प्राप्त होवे । यह सब विषय हम पहिले प्रकरणमे कह स्वयमप्रत्ययितात्तु पुरुषात् तध्याख्यानं प्रवर्गमानभसत्यमेव नद्यास्तीरे फलानि संतीति लौकिकवचनवत् । यदि आप मीमांसक दूसरा पक्ष लेंगे कि बिना विश्वास किये गये पुरुषसे भी वेदका व्याख्यान प्रवर्तित होजाता है, तब तो बह व्याख्यान झूठा ही समझा जावेगा । जैसे कि कार्य करनेवाले एक पुरुषको छोकरोंने हैरान किया । लडफोंको भगानेकी अभिलाषासे वह पुरुष यह लौकिक वचन बोल देता है कि नदीके किनारे अनेक फल पड़े हुए हैं। इस वाक्यको सुनकर आतुर लड़के नदीके किनारे भाग जाते हैं । किंतु नदीके किनारे वृक्षोंके न होनेसे उनको फल नहीं मिलते हैं । अतः उस साधारण मनुष्यके ऊपर उन लडकोका विश्वास नहीं रहता है । जैसे इस काम करनेवाले लौकिक पुरुषके वचन झूठे हैं उसी प्रकार श्रोताको जिस वक्ताके कथनका विश्वास नहीं है उसका व्याख्यान भी झूठा ही है। न चापौरुषेयं वचनमतथाभूतमप्यर्थ ब्यादिति विप्रतिषिद्धं यतस्तव्याख्यानमसत्यं न स्यात् । पूरी पूरी शक्तियाले अनेक विरुद्ध पदार्थोके विरोध करनेको विप्रतिषेध कहते । विप्रतिषेधवाले दो पदार्थ एक जगह रह नहीं सकते हैं। जहां घट है वहां घटाभाव नहीं, और जहां घटामाव है वहां पट नहीं । एककी विधिसे दूसरेका निषेध उसी समय हो जाता है और दूसरे की विधि से एफका निषेध तत्काल हो जाता है । इस प्रकारका विप्रतिषेध मीमांसक दे रहे हैं कि अपौरुषेय
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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