SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः होजानेपर पूर्व वाक्योंके वाच्यको झूठा कर दिया गया है तब वे शब्द मी अर्थको कहाँ कर रहे हैं ? उक्त प्रकार मीमांसकों का कहना तो प्रसिद्धार्थख्याति माननेवालोंकासा ही है । जो कि कोसों तक फूले काँसामे या चमकते हुए वाल रेत. ( मरीचिकाचक्रमे ) जलकी भ्रांति होनेपर यह मानते हैं कि जलके ज्ञान होते समय बालू रेतमै अश्य जल भरा हुआ था किंतु वहां पहुंचनेपर बह जल बिजलीकी तरह झट नष्ट होगया । शब्दके सत्य अर्थ प्रतिपादन करनेमें भी निकटतम ( लगभग ) मीमांसकोंका इसी प्रकारका सिद्धांत माना जारहा है। भले मनुष्योंको यह तो विचारना चाहिये कि पीछे वहां पहुंचनेपर कुछ भी कीच या गीलापन बहा जलचिन्ह दीखता ॥ तत्र बाघकप्रत्ययोत्पत्तेरसम्भवाद्विपतिपेध एवेति चेत्, ने, अग्निहोत्रात्स्वर्गो भवतीति चोदनायां बाधकसद्भावात् । तथाहि "नामिहोत्रं स्वर्गसाधनं हिंसाहेतुत्वात्सधनवधवत् । सधनधो वा न खर्गसाधनस्तत एवाग्निहोत्रवत् "। ___ यदि मीमांसक यहाँ यह कहेंगे कि लौकिक वचनों बाधक ज्ञानोंके उत्पन्न होजानसे असत्यार्थपना भले ही होजाय किंतु वाक्योंके अर्थमें बाधा देनेवाला कोहे ज्ञान पैदा नहीं होसकता है । असम्भव है । इस कारण नेदके वाक्य होकर असत्य अर्थक प्रतिपादन करनेवाले हों, यह अवश्व ही तुल्यबल माला विरोध है अर्थात् वेदके वात्रय सत्यार्थ ही है हैं, यह तो उनका कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अग्निहोत्र नामके यज्ञ. फरनेसे स्वर्ग मिल जाता है इस प्रेरक वेदवाक्यमें बाधक प्रमाण विद्यमान हैं । इसी बातका आचार्य अनुभानको बाधक प्रमाण बनाकर स्पष्टीकरण करते हैं कि, " अमिहोत्र नामका भाग स्वर्गका साधक नहीं है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि वह पशुओंकी हिंसाका कारण है। ( हेतु ) जैसे कि धनवान् पुरुषको मार डालना चाहिये ऐसे जीव हिंसापूर्वक किये गये कर्म सद्गतिके कारण नहीं हैं । अथश स्वरपटमतके अनुयायी यदि धनवानों के मारडालनेमें भी स्वर्ग बतलायें तो इसका भी बाधक प्रमाण यह है कि धनवान्का काशीकरवत, गंगाप्रवाह, शिवपिण्डीके सामने मस्तक चढाने आदि उपायोंसे मार डालना स्वर्गको प्राप्त करानेशला उपाय नहीं है, इसही कारणसे यानी क्योंकि वह भी अग्निहोत्रके समान हिंसाके कारणोंसे पैदा हुआ है। अतः स्वर्गका साधक नहीं होसकता है " । विधिपूर्वकस्य पश्वादिषधस्य विहितानुष्ठानत्वेन हिंमाहेतुत्वाभावात् असिद्धो हेतुरिति चेत्. तर्हि विधिपूर्वकस्य सधनवधस्य खारपटिकानां विहितानुष्ठानत्वेन हिंसाहेतुत्वं मा भूदिति सधनवथात्स्वर्गो भवतीति वचने प्रमाणमस्तु । प्रतिवादी बोलता है कि कर्मकाण्डके विधान करनेवाले शास्त्रों में लिखी हुई वैदिकविषिके अनुसार किया गया पशुओंका वथ हो शासोक क्रियाओंकाही अनुष्ठान है, लौकिकहिंसाके समान
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy