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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
प्रकार अनवस्था दोष हमारे ऊपर लागू हो जावे सो भी नहीं समझना। क्योंकि समझनेवाले ज्ञाताकी किसी स्वलपर कभी न कभी अवस्थिति हो ही जावेगी। अतः उसकी उत्तशेत्तर सम्बंध कल्पना करनेकी आकांक्षाएं रुक जावेंगी। फिर भी यदि कोई आग्रही अधिक आकांक्षाएं करेगा तो भी सौवीं या पांचसौवी कोटीपर अवश्य निराकांक्ष हो जावेगा अथवा दयाल ईश्वर उसकी जिज्ञासाओंको आगे नहीं बढ़ने देवेंगे, ऐसे समयपर ईश्वर कृपालुता न दिखलाये तो अनेक जीव भोकनेवाले उन्मत्त कुत्तके समान अकालमें मर मिटे होते। देखो, प्रतीतिको कारण मानकर तत्वोंकी व्यवस्था मानी जाती है । एक मनुष्य किसीके मा बाप की परम्पराको पूंछते हुए कही न कही रुद्ध हो ही जाता है । अनवस्थाके हरसे प्रतीतिसिद्ध भिन्न भिन्न तत्त्व तादात्म्य के बहानेसे नहीं टाल दिये जाते. है । अतः जैनोंको शक्तिसे शक्तिमान्का भेद मानना चाहिये, इस प्रकार दूसरे नैयायिक कह रहे हैं।
तेषां संयोगसमवायव्यवस्थैव तावन्न घटते, प्रतीत्यनुसरणे यथोपगमप्रतीत्यभावात, तथाहि
उन नैयायिकोंके यहां पहिले सो संयोग और समवायकी व्यवस्था ही नहीं बरती है, प्रतीति के अनुसार तत्वों की व्यवस्था माने यही तो हमको इष्ट है। आपने संयोग और समवायका जैसा स्वरूप माना है। उसके अनुसार उनकी प्रतीति नहीं हो रही है। इसी बातको विशद रूपसे कहते है--सो सुनो।
संयोगो युतसिद्धानां पदार्थानां यदीष्यते। समवायस्तदा प्रातः संयोगस्तावके मते ॥ १६ ॥
पृथक् पृथक आश्रयों में रहनेवाले युतसिद्ध पदार्थाका संयोग सम्बंध होना यदि आप नयायिक इष्ट करते हैं तो तुम्हारे मत समवाय सम्बंधको संयोगपना प्राप्त हो जावेगा।
कसाव समवायोऽपि संयोगः प्रसज्यते मामके मते ?
वैशेषिक या नैयायिक पूछता है कि मेरे मम समवाय सम्बंधको भी संयोगपनेका प्रसंग कैस होगा ! आप जैन आचार्य बतलाओ ! इस पर आचार्य कहते हैं
युतसिद्धिर्हि भावानां विभिन्नाश्रयवृत्तिता। दधिकुण्डादिवत्सा च समाना समवायिषु ॥ १७॥
नैयायिक मतमे पदार्थोका भिन्न भिन्न आश्रयों में वृत्ति रहना ही युतसिद्धि मानी गयी है। जैसे कि दही और कुण्डीका तथा घट और जलका युतसिद्धि होने के कारण संयोग सम्बंध है। यही युतसिद्धि तो रूप और रूपवान् तथा अवयव और अवयवी इन माने गये समवायियों मी .
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