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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः है और वह संयोगका समवाय है । इस संबंध संबंधीपनेको स्वरूपसंबंधने बतलाया | क्योंकि संयोग गुण समवाय स्वरूपसंबंध से रहता है। किंतु यह स्वरूपसंबंध भी संयोग और समवायके समान अपने संबंधियोंसे सर्वथा भिन्न पड़ा हुआ है, इसकी संयोजनाके लिये भी अन्य संबंधोंकी वही आकांक्षा होती जावेगी । अतः अनवस्था दोष है। संबंध भी तो उन संबंधियोंका सभी कहा जायगा जब कि संबंध दोनों, दीनों में संबंधित हो जायगा। इस दोषके परिहारके लिये बहुत दूर भी जाकर आप नैयायिकों को संबंध हा संयोग पडेगा। इसके अतिरिक्त आपकी कोई गति नहीं है। उस कारणसे ऐसा होनेपर हमारी मानी हुयी शक्ति भी अपने शक्तिमान अत्यंत मिन्न नहीं है । क्योंकि संबंधसे अभिन्न जो संबंधी हैं उन्हीं स्वरूप वह शक्ति है, जैसे कि शक्ति से शक्तिका स्वरूप मिश्र नहीं है । हम स्याद्वादी शक्ति और शक्तिमान्का कथम्बित् तादात्म्यसंबंध मानते हैं। जैन सिद्धांतमें दो प्रकारकी शक्तियां मानी गयी हैं । द्रव्यशक्तियां और पर्यायशक्तियां। उनमें द्रव्यशक्तियां तो जीव चेतना, सुख, सम्यक्त्व तथा पुद्गलमें रूप, रस आदि हैं। ये शक्तियां अनाद्यनंत हैं और पर्यावशक्तियां सादि सांत हैं। जैसे कि जीवकी योगशक्ति संसार अवस्था में पायी जाती है, मोक्षमें नहीं । पुद्गलकी चुम्बक अवस्थामें आकर्षण शक्ति है, लोह पर्याय में नहीं है एवं नमि अवस्थामै दाहकत्व, पाचकत्व, शोषकत्व आदि शक्तियां हैं, वही अमि, जलरूप या पाषाणरूप हो जावे तो वे शक्तियां नष्ट हो जाती हैं। उन उन पर्याय में दूसरी शक्तियां उत्पन्न हो जाती हैं । पर्याय उत्पन्न हो जाने पर भी अनेक शक्तियां निमित्तोंके द्वारा आती जाती रहती हैं, जैसे कि एक औषधि अनुपान के मेदसे अनेक रोगोंका निवारण कर देती है, ये सभ पर्यायशक्तियां हैं। पकृतमें ज्ञानशक्ति और ज्ञानका भी तादात्म्य संबंध है । इस कारण नैयायिकों का पूर्वोक्त दोष हमारे ऊपर लागू नहीं होता है । I ४४० - ननु गत्वा सुदूरमपि सम्बन्धतद्वतोर्नैक्यमुच्यते येनात्मनो द्रव्यादिरूपा शक्ति स्वत्सम्बन्धाभिन्नसम्बन्धिस्वभावत्वादभिन्ना साध्यते, परापरसम्पधादेव संबंधस्य सम्बन्धिताध्यप देशोपगमात् । न चैवमनवस्था, प्रतिपत्तुराकांक्षानिवृत्तेः कचित्कदाचिदवस्थानसिद्धेः प्रतीतिनिबन्धनत्वात्तत्वव्यवस्थाया इति परे । अनवस्था दोषको हटाने के लिये नैयायिक तादात्म्यके अतिरिक्त दूसरा उपाय रचते हैं । वे अपने पक्षका अवधारण कर कहते हैं कि बहुत दूर भी जाकर हम संबंध और उससे सहित दो रहे संबंधियोंका तादात्म्यरूप अभेद नहीं मानते हैं जिससे कि आत्माकी सहकारी कारणरूप द्रव्य, गुण, कर्म, शक्तियां आत्मा से अभिन्न सिद्ध कर दी जावे और उसमें जैन लोग यह हेतु दे सके कि उनके सम्बन्धसे अभिन्न संबंधियोंके स्वमावरूप वे शक्तियां हैं । भावार्थ- हम शक्ति और शक्तिमानका अभेद नहीं मानते हैं। किंतु संयोग, समवाय, विशेषता स्वरूप आदि उत्तरोत्तर होनेवाले अनेक संबंधोंसे ही सम्बंध के सम्बधीपनेका स्वस्वामिव्यवहार माना जाता है तथा इस J
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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