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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १३९ सहकारी कारण है । आत्मा समवायी कारण है । यहां तेजो द्रव्यरूप चक्षुरिन्द्रिय स्वरूप शक्तिका आत्मा द्रव्यों संयोगसम्बंध हो रहा । इस सम्बंधसे वह चक्षुःशाक्ति आत्माकी बोली गयी है। इसी प्रकार जिव्हा, प्राण आदिके सन्निकोंमें भी लगा लेना, और आरमा तथा मनका संयोग गुण पदार्थ है, इस शक्तिके साथ आत्माका समवाय सम्बंध है । गुणीमें गुण समवाय सम्बंघसे रहता है, अतः समवायके चश आत्माकी शक्ति आत्ममनःसंयोग कही जाती है । कारिका च शब्द पड़ा हुभा है । अतः उक्त दो सम्बन्धोंके अतिरिक्त संयुक्तसमवाय और संयुक्तसमवेतसमबाय आदि सम्बन्धोंका भी समुच्चय होजाता है । जिस समय आत्मा रूपको जानता है, तब अवलम्ब कारण होकर रूपके ज्ञानमें रूप भी सहकारी कारण है। इसी प्रकार रूपत्व, रसत्त्व आदि भी अपने ज्ञानों में आत्माके सहकारीकारण स्वरूप शक्ति बन जाते हैं। आत्मासे संयुक्त घट है और घटमै समय सम्बन्ध से रूप रहता है । अत: आत्माका रूपके साथ संयुक्त समवाय एम्बन्ध है और रूपमें रूपत्व समवाय सम्पन्धसे रहता है। अतः आत्माका रूपत्व के साथ संयुक्तसमवेतसमवाय सम्बन्ध है । नैयायिकोने द्रव्यरूप इन्द्रियोंका भी रूप रस, घटस तथा रूपत्व, रसत्वके साथ संयुक्तसमवाय और संयुक्त समवेतसमवाय सम्बन्ध होना माना है । ऐसे ही समवाय, समवेतसमवाय और विशेष्यविशेषणभाव सम्बन्ध भी शक्ति और शक्तिमान्के मोजक है, यदि नैयायिक ऐसा मानेंगे तदाप्यर्थान्तरत्वेस्य सम्बन्धस्य कथं निजात् । सम्बन्धिनोऽवधायेंत तत्सम्बन्धस्वभावता ॥ १३ ॥ सम्बन्धान्तरतः सा चेदनवस्था महीयसी । गत्वा सुदूरमप्यैक्यं वाच्यं सम्बन्धतद्वतोः ॥ १४ ॥ तथा सति न सा शक्तिस्तद्वतोत्यन्तभेदिनी। सम्बन्धाभिन्नसम्बन्धिरूपत्वात्तत्स्वरूपवत् ॥ १५ ॥ तो भी अपने संबंधीसे इस संबंधको भिन्नपदार्थ माननेपर उसको संबंधस्वरूपपना कैसे निश्चित किया जा सकेगा? बताओ। भिन्न पढे हुए संबंधसे दो संबंधी सम्बद्ध मी न हो सकेंगे। भावार्थ ---आत्मा और चक्षुःका संयोगसंबंध आपने इष्ट किया है । वह संयोग आस्माद्रव्यरूप या चक्षुःद्रव्य रूप तो है नहीं। किंतु नैयायिकोंने उसको स्वतंत्र गुण माना है। ऐसी दशा में सर्वथा मित्र पदार्थ हो जानेसे " वह संयोग आस्माका है तथा चक्षुःका है। यह निर्णय कैसे किया जावे ! यदि दूसरे संबंधोंसे प्रकृति संबंधक स्वस्वामि-व्यवहारका निर्णय करोगे तो नही लम्बी चौडी अनवस्था होगी । अर्थात् आत्माकी शक्ति चक्षुः है, इसको संयोग संबंधने जताया और वह संयोग चक्षुःका है, इस बालको समवायने बतलाया, क्योंकि संयोगगुण चक्षुः द्रव्यमें समवाय संबंधसे रहता
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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