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________________ तत्त्वार्थचितामणिः यदि हेतुसे ही सर्व पदार्थों की सिद्धि मानी जाये तो प्रत्यक्ष, स्मरण आदिकसे जो घट पटादिकका यथार्थ ज्ञान होता है, वह न हो सकेगा, तथा यदि आगमसे ही सम्पूर्ण तत्वोंका सद्भाव सिद्ध किया जाय तो एक दूसरे के विरूद्ध अर्थोके प्रतिपादक चार्वाक, बौद्ध, अद्वैतवादी आदि मत भी सिद्ध हो जायेंगे। क्योंकि सम्पूर्ण मतवालों ने अपने अपने सिद्धान्तों के प्रतिपादन करने वाले अन्य रच लिय है । तस्मादाप्ते वक्तरि संप्रदायाव्यवच्छदेन निश्चित तद्वाक्यात्प्रवर्तनमागमादेव, वक्तर्यनाते तु पत्चद्वाक्यात्प्रवर्तन तदनुमानादिति विभाग साधीयान्, तदप्युक्तं "वक्तयनान यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधित आप्ते वक्तरि तद्वाक्यात्साध्यमागमसाधित" तिस कारण हेतुवाद और आगमवाद के एकान्तों का निर्णय (फैसला ) इस प्रकार है कि विना विच्छेद के गुरु आम्माय से आये हुये तत्त्वज्ञान के अनुकूल यथार्थ बक्ताका निश्चय होने पर उस सस्यवक्ता के वाक्य द्वारा जो शिष्यों की प्रवृत्ति होगी, वह आगम से ही हुयी प्रवृत्ति कही जायगी, और बालनवाल के सत्यवक्तापनेका निश्चय न होजाने पर उसके वाच्यार्थमें हेतुवाद लगाकर अनुमान से सिद्ध हुये पदार्थमें श्रोताओं की उस प्रवृत्ति करने को अनुमानसे प्रवृत्ति होना कहते हैं, इस प्रकार अनुमान और आगम से जाने गये प्रमेयका भेद करना बहुत अच्छा है। उस बातको भी स्वामी समन्तभद्राचार्यने देवागमस्तोत्र में ऐसा ही कहा है कि अयथार्थ बोलनेवाले वक्ताके ज्ञान होजाने पर हेतु से जो साध्य सिद्ध किया जाता है, वह हेतु साधित तत्त्व है और सत्यबोलने वाले वक्ताके निश्चय हो जाने पर उसके बाक्यसे जो साध्य जाना जाता है, वह आगनसे सिद्ध हुआ पदार्थ है । न चैवं प्रमाणसंप्लववादविरोधः, कचिदभाम्यामागमानुमानम्या प्रवर्तनस्येष्टत्वात प्रवचनस्याहेतुहेतुमदात्मकत्वात्, स्वसमयप्रज्ञापकत्वस्य तत्परिज्ञाननिवन्धनवाद परिज्ञातहेतुवादागमस्य सिद्धांतविरोधकत्वात्. एक प्रमेय में विशेष, विशेषांशोंको जाननेवाले अनेक प्रमाणोंकी प्रवृत्ति को प्रमाणसंप्लव कहते हैं. जैसे - आप्त के पचन से वहिको आगम द्वारा जानने में तथा धूम हेतु से अमिको अनुमान द्वारा जानने में एवं आग को बहिरिन्द्रियोंसे प्रत्यक्ष द्वारा जानने में प्रतिभासका तारतम्य है, इस प्रकार विशेषांशोंको जाननेवाला प्रमाणसंप्लव सर्वप्रवादियोंने इष्ट किया है । __ यदि यहाँ कोई शंका करे कि .-- स्याद्वादी लोक आप्तवाक्येस आगमज्ञानकी प्रवृत्ति का ही अबधारण करेंगे और अनाप्त दशाभ हेतु से अनुमान ज्ञानका नियम करेंगे तो एक विषय में कदाचिद भी अनुमान और आगम दोनों प्रवृत्त न हो सकेंगे, ऐसा माननेपर आपको प्रमाणसं
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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