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तत्त्वार्थचिंतामणिः
वाले इन दोनोंका समान रूपसे तत्त्वार्थशास्त्र आदि उच्च कोटिके ग्रन्थोंको सुनने में अधिकार नहीं है । क्योंकि कहीं पूर्वकर्म जैन सिद्धान्त झात होंगे और कचित् उत्तरपक्ष जैनोंको अजैनोंकासा तत्त्व प्रतीत होगा । इस प्रकार अनेक स्थानोंपर बिना विचारे भोले जीव शास्त्रके हृदयको न जान सकेंगे या विपरीत समझ लेंगे । अतः उन मन्दबुद्धिवालोंको श्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों को न सुनकर द्रव्यसंग्रह, पुरुषार्थसिध्युपाय आदि शास्त्र ही सुनने चाहिये। जो जिसके योग्य है, उस को वैसाही उपदेश हितकर होगा। जैसे कि छोटे बालकको सर्व द्रव्यशास्त्रोंकी जननी होकर सिद्ध ( पुरानी) चली आ रही अ, आ, इ, ई आदि वर्णमालाका ही उपदेश लाभकर है । थोडी बुद्धिवाला बच्चा उच्च कक्षाकी पुस्तक पढनेका अधिकारी नहीं है।
'प्रेक्षावन्तः पुनरागमादनुमानाच्च प्रवर्तमानास्तत्त्वं लभन्ते, न केवलादनुमानात्प्रत्यक्षादितस्तेषामप्रवृत्तिप्रसंगात् नापि केवलादागमादेव विरुद्धार्थमतेभ्योऽपि प्रवर्तमानानां प्रेक्षावत्वप्रसक्तेः।
शंकरपूर्व में कहा था कि विना तर्कसे सिद्ध किये गये आदिके प्रयोजनवाक्यसे परीक्षाप्रधान विद्वान् किसी भी प्रकार शास्त्र सुनने में प्रवृत्ति नहीं करेंगे । इसपर यह समाधान है कि- आगम और अनुमान दोनों प्रमाणोंसे ही विचार करनेवाले सज्जन, परीक्षक विद्वान् कहलाते है और तभी वे तत्त्वज्ञानको भी प्राप्त कर सकते हैं
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यों समीचीन विचारशाली पण्डित तो फिर श्रेष्ठ आगम और सच्चे अनुमान प्रमाणसे प्रवृत्ति करते हुए तस्वलाभ कर लेते हैं ।' युक्त्या यन्न घटामुपैति तदहं दृष्टवापि न श्रद्धधे जो मुक्ति से सिद्ध नहीं होता, उसको मैं प्रत्यक्ष देखता हुआ भी नहीं मानूंगा, ऐसी कोरी हेतुवादकी डींग मारने वाले वितण्डावादी परीक्षक नहीं कहे जाते । यदि केवल अनुमानसे ही पदार्थ की सिद्धि मामी जाय तो प्रत्यक्ष, आसवाक्यजन्य आगम और स्मरण से उन जनों की प्रवृत्ति न हो सकेगी, किन्तु उनसे भी समीचीन प्रवृत्ति होती है। अतः केवल हेतुवादीको परीक्षक नहीं माना गया है। इसी प्रकार केवल आगमसे ही वस्तुका ज्ञान करने वाले भी परीक्षक नहीं कहे जा सकते। क्योंकि अनेक विरुद्ध पदार्थों के प्रदिपादक बौद्ध, चार्वाक, वैशेषिक आदि मौके पोषक ऐसे शास्त्रों (शास्त्रमासों ) से प्रवृत्ति करनेवालों को भी प्रेक्षावानूपनेका प्रसंग आवेगा। (हित अहिलको विचारनेवाली बुद्धि प्रेक्षा है) ' तदुक्तं " उसी बालको समन्तभद्राचार्यनें यों कहा है
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सिद्धं देतुतः सर्वे न प्रत्यक्षादितो गतिः ।
सिद्धं दागमात्सर्व विरुध्दार्थ मतान्यपि ॥ इति,