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________________ तत्या चिन्तामणिः ५३७ चारित्रगुण विशेषकालकी अपेक्षा रखता है। इस कारण शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करानेमें असमर्थ है । यदि ऐसा इष्ट करोगे तो चौदहके अंतमें होनेवाला पूर्णचरित्र भी सिद्ध भगवान्की दूसरे, तीसरे, चौथे आदि समयों में होनेवाली पर्यायों के पैदा करने में भी असमर्थ होगा। क्योंकि चौदवेंके अंतमें होनेवाला पूर्ण चारित्र पहिले समयकी सिद्ध पर्यायको तो बना देगा। क्योंकि उसके अव्यवहित पूर्वसमयमें समर्थ कारण विद्यमान है। किंतु दूसरे, तीसरे, आदि समयोंकी पर्यायोंको बगानेमें वह वैसा ही असमर्थ रहा आवेगा । ऐसा होनेपर दूसरे, तीसरे प्रभृति समयोंमें वे सिद्ध भगवान् मुक्त न रह सकेंगे, इस प्रकार किसीका कहना तो प्रशस्त नहीं है। क्योंकि कहीं मी कार्यकारणभावका यदि विचार होता है तो वह कार्यके पहिले समयकी पर्यायको पैदा करानेमें ही होता है। प्रकृतम मी उमास्वामी महाराजका पहिले समयकी सिद्ध पर्यायके उत्पन्न होनेकी अपेक्षासे मोक्षमार्गके प्रकरण विचार होनेका प्रस्ताव चल रहा है और ऐसा होनेसे ही कार्यकारणभावकी प्रमाणोंसे सिद्धि होती है । देखिये ! सबसे पहिली घटपर्याय उसके पूर्ववर्ती कोष, कुशूल, दण्ड, चक्र, कुलाल, मृत्तिका आदि कारणोंसे होती हुयी मानी है । घटके उत्पन्न हो जानेपर पुनः उस घटकी उत्तरवर्ती सहश पर्यायोंका कारण पूर्व समयवर्ती परिणाम या कालद्रव्य माने गये हैं। उनमें दण्ड, चक्र, कुलाल, आदिकी आवश्यकता नहीं है । वैसे ही पहिले समयको सिद्ध पर्यायका कारण सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान और परिपूर्ण चारित्र है । दूसरे, तीसरे, आदि समयों में होनेवाली सजातीय सदृश सिद्ध पर्यायोंका कारण रत्नत्रय नहीं है । किंतु काल और पूर्वपर्याय आदि हैं। न हि यादिसिद्धक्षणैः सहायोगिकेवलिचरमसमयवर्तिनो रत्नत्रयस्य कार्यकारपभावो विचारयितुमुपांतो येन तत्र तस्यासामर्थ्य प्रसज्यते । किं तर्हि १ प्रथमसिद्धक्षणेन सह, तत्र च तत्समर्थमेवेत्यसुच्चोद्यमेतत् । कथमन्यथाग्निः प्रथमधूमक्षणमुपजनयन्नपि तत्र समर्थः स्यात् ? धूमक्षणजनितद्वितीयादिधूमक्षणोत्पादे तस्यासमर्थस्वेन प्रथमधूमक्षणोत्पादनेऽप्यसामर्थ्यमसक्तेः। तथा च न किंचित्कस्यचिस्समर्थ कारणं, न चासमर्थात्कारणादुत्पत्तिरिति केयं वराकी तिष्ठेत्कार्यकारणना । इस तत्त्वार्थसूत्रके प्रारम्भ करने के प्रकरणमें दूसरे तीसरे चौथे, आदि समयोंमें होनेवाली सिद्ध पर्यायोंके साथ चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थानके अंतसमयमें होनेवाले स्लत्रयका कार्यकारणभाव विचार करने के लिये प्रस्ताव प्राप्त नहीं है, जिससे कि चौदहवेक अन्त्यसमयवर्ती उस चारित्र या रत्नत्रयकी दूसरे आदि समयमि होनेवाली उन सिद्ध पर्यायोंके उत्पन्न करनेमें असमर्थताका प्रसंग दिया जावे। तब तो कैसा कार्यकारणभाव है ! सो सुनो ! पहिले क्षण की सिद्ध पर्यायके साथ रनत्रयका कार्यकारणभाव है । और वह रत्नत्रय उस पहिली सिद्धपर्यायको उत्पन्न करनेमें समर्थ ही है। इस कारण यह उपयुक्त आफ्का कुचोध करना प्रशंसनीय नहीं कहा जासकता है। यदि ऐसा 68
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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