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________________ ५३८ सत्त्वायचिन्तामणिः न स्वीकारकर अन्य प्रकार माना जावे अर्थात् कार्यकी पहिली पर्यायको ही पैदा करनेवाला कारण न मानाजावे और पूर्ण कार्यको सन्तनको पैदा करनेवाला कारण माना जाये तो भमिरूपी कारण पहिले समयकी धूमकी पर्यायको पैदा करता हुआ मी धूमके उत्पन्न करने समर्थ क्यों कहा जाता है ! सर्व ही उत्तरवर्ती घूमपर्यायोंको तो अग्नि पैदा नहीं करती है । पहिले क्षणकी घूम पर्यायसे उत्पन हुयी दूसरे समयकी पर्याय और दूसरे समयकी धूमपर्यायसे उत्पन्न हुयी तीसरे आदि समयकी धूमपर्यायके पैदा करने में जब अमिकी सामर्थ्य नहीं है तो इस कारण पहिले समयकी धूमपर्यायको पैदा करनेमें भी उस आमकी सामर्थ्य न हो सकनेका प्रसंग आयेगा और तब तो कोई भी कारण किसी भी कार्यका समर्थ कारण न बन सकेगा, और असमर्थ कारणसे तो कार्यकी उत्पति होती नहीं है। इस प्रकार यह विचारी कार्यकारणता कहां ठहर सकेगी ! तुम ही बताओ। इससे सिद्ध होता है कि विवक्षित समयके कारणका अव्यवहित उत्तरवर्ती एक समयकी पर्यायरूप कार्यके साथ कार्यकारणभाव है। दीपशलाका सो पहिले समयकी दीपकलिकाको उत्पन्न कर चरितार्थ होजाती है, और आंग आगे होनेवाली कलिकार्य उन पहिली पहिली कलिकाओंसे उत्पन्न होती रहती है। उनमें दीपशलाकाकी आवश्यकता नहीं है। ___कालान्तरस्थायिनोऽग्नेः स्वकारणादुत्समो धूमः कालान्तरस्थायी स्कन्ध एक एवेति स तस्य कारणं प्रतीयते तथा व्यवहारादन्यथा तदभावादिति चेत्, तर्हि सयोगकेवालेरत्नप्रयमयोगिकेवलिचरमसमयपर्यन्तमेकमेव तदनन्तरभाविनः सिद्धत्वपर्यायस्यानन्तस्यैकस्य कारणमित्यायातम् । तच्च नानिष्टम् । व्यवहारमयानुरोधस्तथेष्टत्वात् । निययनयाश्रयणे तु यदनन्तरं मोक्षोत्पादस्तदेव मुख्यं मोक्षस्य कारणमयोगिकेवलिचरमसमयवर्ति रस्नत्रयमिति निरवयमेवचच विदामाभासते । पूर्व पक्षकार कह रहा है कि जहां घण्टोंसे ही लकडीकी अग्नि जल रही है और लकडियों में कुछ गीलापन होनेसे धुआं उठ रहा है, ऐसी दशा घण्टोंतक रहनेवाली अमिकी स्थूल पर्याय उत्पन्न समयसे लेकर बुझनके समय तक एक ही है। इसी प्रकार धूमकी रेखा मी न टूटती हुवी यहांसे वहांतक एक धुआंका स्कन्ध है । इस कारण देर तक ठहरनेवाले अमिरूप अपने कारणसे उत्पन्न हुआ. धुआं भी बहुत कालतक ठहरनेवाला एक ही पौगलिक पिण्ड है। अतः वह कालांचरतक ठहरी हुयी अग्नि, देरतक ठहरे हुए धूम अवयवीका कारण प्रतीत हो रही है। वैसा ही संसारमै बालकसे लेकर वृद्धोतको व्यवहार हो रहा है-- अन्यथा बानी यदि कारणकी स्थूलपायोंका कार्यकी स्थूलपर्यायोंके साथ कार्यकारणभाव नहीं माना जावेगा तो लोकप्रसिद्ध सब व्यवहार रुक जावेंगे । उनका अभाव हो जावेगा। पहिले दिनके पैदा हुए बच्चेका जनक भी बाप कहलाता है और वही उस बच्चे के युवा, वृद्ध होने तक भी वह-बाप
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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