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________________ सवा चिन्तामणिः PAN... कहा जाता है। आमका वृक्ष छोटी अमियों को उत्पन्न करता है। किंतु बडे आम्रफलको भी वही वृक्ष अमियांको बढाते बढाते पैदा कर देता है । ग्रंथकार कहते हैं कि यदि इस प्रकार कहोगे, तब तो प्रकृतमे भी तेरहवें गुणस्थानके सयोगकेवलीका झायिक रलत्रय और अयोगकेवली के अंतिम समय पर्यत रहनेवाला विशेष स्वभावरूप सहकारी कारणोंसे परिपूर्ण हुआ बह रलत्रय एक ही है और ऐसे ही उस बौदहवेके अंतिम रत्नत्रयसे होनेवाली प्रथम समयकी सिद्धपर्याय और उस पर्यायके पश्चात् उत्तरोत्तर अनंतकाळमुक होनेवाली मदृश अनंतानंत सिद्धपोय मी एकपिण्ड हैं । अत: वह एक ही रत्नत्रय अनंतकालतक होनेवाली सिद्ध पर्यायोंका कारण है । इस प्रकार कार्यकारणभाव प्रकृतमै भी आ गया । यह हम स्याद्वादियोंको अनिष्ट नहीं है । व्यवहार नयकी प्रथानताको विवक्षा होनेपर तदनुसार वैसा स्थूल कार्यकारणभाव हम इष्ट कर लेते हैं। हां ! निश्चय नयका अवलम्ब करनेपर तो जिस रत्नत्रयके अव्यवहित उत्तर काली पहिली मोक्षपर्याय होगी वही मुख्यरूपसे मोक्षका कारण कहा जावेगा। चौदहवे गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली महाराजके मंतिम समयमें रहनेवाला नत्रय उक्त प्रकारसे मोक्षका निर्दोषरूपसे कारण निर्णीत हुआ। यह बात तत्त्वपरीक्षक विद्वानोंको बिना खटकाके झलक रही है । मावार्थ-निश्चय नयसे अव्यवहित पूर्व समयवर्ती पर्याय कारण है और उत्तर एक समयमें होनेवाला परिणाम कार्य है । इस नयसे गर्भ स्थितिके आदि समयके पुत्रका उत्पन्न करनेवाला जनक पिता है । उसके आगे नौ महीने की गर्भावस्था या बाल, कुमार मादि अवस्थाओंका जनक पिता नहीं हो सकता है । पहिली पहिली पर्याय ही खाद्य, पेय, पोषक आदि सामग्रीसे सहित होकर उन अवस्थाओंकी अनक है। किंतु व्यवहार नयसे पूर्व समयमें होनेवाली बहुत देर तककी स्थूलपर्याय उत्तरकालवी देर तक रहनेवाले कार्यकी जनक है । इस व्यवहारनयसे पिता बूढे हो चुके पुत्रका भी बाप कहा जावेगा । प्रायः लोकोपयोगी कार्य इसी नयसे साध्य हो रहे हैं । विजली, दीप-कलिका आदि कार्योको इम क्षणिक समझते हैं। वे मी अनेक समयोंतक सदृश परिणाम लेती हुयीं कुछ देरतक ठहरनेवाली स्थूल पर्याये हैं। ऋण लेना देना, गुरुशिष्यभाव, पतिव्रतापन, गेहूंकी रोटी, मिट्टीसे घडा आदि कार्य इस व्यवहार नयकी प्रधानता ही से बनते हैं । इस प्रकार निदोष कार्यकारणभावकी व्यवस्था है। ततो मोहक्षयोपेतः पुमानुभूतकेवलः। . विशिष्टकारणं साक्षादशरीरत्वहेतुना ॥ १३ ॥ रत्नत्रितयरूपेणायोगकेवलिनोंऽतिमे। क्षणे विवर्तते ह्येतदवाध्यं निश्चितानयात् ॥ ९४ ॥ व्यवहारनयाश्रित्या त्वेतत्प्रागेव कारणम् । . मोक्षस्थति विवादेन पर्याप्तं तत्ववेदिनाम् ॥ ९५ ॥
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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