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________________ १८२ तस्थाचिन्तामणिः कारणता है और वृक्षोंकी लकडी या कौने घरे दण्डको केवल स्वरूपयोग्यतारूप अनुकूल कारणता है, वैसे ही अपूर्ण रत्नत्रय मोक्षमार्गके प्रतिकूल नहीं है । सहायक है । .. । एतेन मोक्षस्यैव मार्गों मोक्षस्य मार्ग एवेत्युभयावधारणमिष्टं प्रत्यायनीयम् । इस पहिले कथनसे इस सिद्धान्तका भी निश्चय करलेना चाहिये कि विषेय दलमें परे हुए मोक्षमार्गके पेटमें भी हम दोनों ओरसे अवधारण करमा इष्ट करते हैं। रत्नत्रय मोक्षके ही मार्ग है अर्थात् कुमार्ग या मोक्षके कार्य नहीं हैं। । पूर्वावधारणेऽप्यत्र तपो मोक्षस्य कारणम् । ३न स्यादिति न मन्रायन्नं कस्य पर्यास्मफरवराः । यहां किसी प्रतिवादीका यह विचार है कि व्यवहार नयकी अपेक्षासे यदि पूर्वके उद्देश्य दलने एवकार लगाना मी इष्ट करोगे तो मोक्षका कारण तप न हो सकेगा। क्योंकि आप तीनको ही मोक्षका कारण मानते हैं। अन्थकार कहते हैं कि सो यह नहीं मानना पाहिये । क्योंकि वह तकं चारित्रमें गर्मित हो जाता है । भावार्थ-तप चारित्रस्वरूप है। अतः तपके होते हुए भी तीच ही मोस के मुर्म हुए। नवसाधारणकारणानिधित्सायामपि व्यवहारनयात्सम्यग्दर्शनादीन्येव मोक्षमार्ग इत्येवधारणं श्रेयस्तषसों मोक्षमार्गत्वाभावप्रसंगात् । न च तपो मोक्षस्यासाधारणकारणं न भवति, तस्यैवोत्कृष्टस्याभ्यंतरसमच्छिन्नक्रियाप्रतिपातिध्यानलक्षणस्य कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षकारणत्वन्यवस्थितः । सम्यादर्शनशानचारित्रतपासि मोक्षमार्ग इति सूत्रे क्रियमाणे तु मुन्नेत पूर्वावधारणम्। अनुत्पन्ननारक्तपोविशेषस्य च सयोगकेवलिन समुत्पनरलायस्पापि धर्म: देशना न मिंध्यतेऽवस्थानस्य सिद्धेः। ततः सफलचोयावतारणनिहाये चतुष्टयं मोक्षमार्गो वक्तव्यः । तदुक्तम् । दर्शनशानचास्त्रितपसामाराधना भणिति केचित्, दायचोयम् । तपसचरित्रात्मकत्वेन व्यवस्थानात सहनादित्रयस्यैव मोक्षकारपत्वसिद्ध। .. । अह शंकाको ध्याख्या करते हैं कि व्यवहार नयकी अपेक्षासे मोक्षके असाधारण कारणीक काकी अमिलाका होनेपर भी सम्यग्दर्शन आदि तीन ही मोक्षके मार्ग है, इस प्रकार जैनोका निमः करना कल्याणकारी नहीं है। क्योंकि ऐसा करनेसे तपको मोक्षमार्गपने के अभावका प्रसैग होचावेगा। जैनोंकी ओर से संभव है कि कोई यों कह बैठे कि मोक्षका असाधारण कारण सप होता होनही है। यह तो नहीं कह सकते हो । क्योंकि आभ्यंतर रूपों में उत्कृष्ट माने गमे उस व्युपातक्रियानिति नामक चौथे. शुक्लध्यानरूप तपको सम्पूर्ण कोंके सर्वधा मोक्ष होजानेका कारणपना ल्यव
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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