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सत्त्वार्थचिन्तामणि
स्थित है। अर्थात् मविष्यमें कर्म न आसके और वर्तमानमें गोडे मी कर्मपरमाणुन विद्यमान रहे, ऐसा मोक्ष चौदहवे गुपस्थानके अंतसम्यवर्ती सपसे होता है। संवर और निर्मक कारणामसप प्रषान है। अंतरक और बहिर तपों में अंतरंग तपप्रधान है। छह प्रकारके अंतरंग सपों में न मवान है । धार ध्यानों में शुक्लध्यान प्रकृष्ट है और चार प्रकारके शुक्लध्यानों में "समुच्छिम्मकथा पचिपाती नामक चौथा शुलध्यान. सर्वोत्कृष्ट है। अंश: मोक्षके असाधारण कारणों में सर्पको अंपाय स्थान देना चाहिये ।
__यदि जैन लोग सम्यादर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यचारित्र और तप ये आर मोके मार्ग है, इस प्रकार सूत्र बनावे तब तो पहिले उद्देश्य दलमे नियम कर देना युक्त हो सकता है। अन्य प्रकार नहीं । स्त्रमें चौथे तपको लगा देनेसे दूसरा लामं यह भी है कि जबतक संयोगकेवली भगवानके उस प्रकारका नौमा शुक्क लाए निशेपटप उत्पन्न नहीं हुआ है और भले ही तीनों रन सम्पर्म 'रूपसे उत्पन्न भी हो चुके हैं, उन भगवानके धर्मका उपदेश देनां मी बन जाता है, कोई विरोध नहीं है। क्योंकि मायुःकरके अधीन होकर उनका शरीरको धारण करते हुए संसारमै टहरे रहना सिद्ध हो चुका है। तीनों रस्नोंके पूर्ण हो जानेसे तेरहवें गुणस्थानके आदिम ही फेवली मंगवानकी "सिद्ध अवस्था न हो सकेगी। हाँ ! पूर्ण सपके उत्पन्न हो जाने पर वे उत्तरकालमें परम मुक्तिको प्राप्त कर लेवेगे। तिस कारण सम्पूर्ण कुचोद्योंकी बोछार गिरनेकी निवृत्ति के लिये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारोंके समुदायको मोक्षमार्ग कह देना चाहिये। उसीको श्रीकुंदकंद आचार्यने भी कहा है कि " देसणणाणचरितं तवाणमाराहणा भगिदा " दर्शन ज्ञान चारित्र और तपकी आराधना करना श्रीगौतम गणधरने निरूपण किया है, इस कार कोई. शंकाकार, कह रहे हैं। श्राचार्य कहते हैं कि उनका वह कटाक्ष करना मी ठीक नहीं है। क्योंकि तपको चारित्रके स्वरूप अंतर्भूत करके व्यवस्थित कर दिया है। अतः सम्यग्दर्शन आदि तीनको ही मोक्षका कारणपन सिद्ध है। यों पूर्व अवधारण करना समुचित है।
..... : ... . . . . . ननु रत्नत्रयस्यैव मोक्षहेतुत्वसूचने। .. ... ... ... ...
किं वार्हतः क्षणादूर्ध्वं मुक्तिं सम्पादयेन्न तत् ॥४१॥ . ... यहां पुनः शंकाकारका कहना है कि यदि रक्षत्रयको ही मोक्षके कारणपनका सूचन करने वाला पहिला सूत्र रचा जावेगा तो केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर अहंत देवके एक क्षणके ऊपर ही वह रत्नत्रय मोक्षको क्यों नहीं पैदा करा देता है ! उत्तर दीजिये। . . . . . ... .. प्रारोवेदं घोदित्वं परिहतं च म पुनः शंकनीयमिति चेत् नपरिहारांतरोपदर्शनात्या पुनधोधकरणस्य । तयाहि---. . . . . .
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