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तत्त्वार्भचिन्ताममिः .
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सूक्ष्म परमाणु, देशव्यवहित सुमेरु आदि, पदार्थोरूप पक्षमें सामान्यरूपसे व्याप्त होकर रह जाता है, यह भी समझ लेना चाहिये जिससे कि असिद्ध आदि दोषोंकी सम्भावना नहीं है।
पवाजलाधनमनवद्यम् । ततोऽसिद्धं परस्यात्र ज्ञापकानुपलम्भनम् ॥ नाभावसाधनायालं सर्वतत्त्वार्थवेदिनः ॥ १३ ॥
जिस कारणसे कि इस उक्त प्रकारसे दिया गया सर्वसाधक हमारा अनुमान निर्दोष सिद्ध हो चुका है उस कारण इस सर्वज्ञके अभावको सिद्ध करनेके लिए दिया गया दूसरे मीमांसकोंका सर्वशके ज्ञापक प्रमाणोंका नहीं दीखनारूप हेतु सर्वज्ञरूप-पक्षम नहीं रहता है अतः असिद्ध हेत्वाभास है । वह हेतु सर्व तत्यरूप पदार्थों को जाननेवाले सर्वज्ञके अभावको सिद्ध करनेके लिए समर्थ नहीं है । जब कि सर्वज्ञकी सिद्धि कर रहे निर्दोष अनुमान प्रमाण विद्यमान है ।
स्वयं सिद्धं हि किश्चित्कस्यचित्सापकं नान्यथाऽतिप्रसङ्गात् ॥
जो कोई हेतु वादीको स्वयं सिद्ध हो चुका है वह तो नियमसे किसी न किसी साध्यका साधक हो सकता है । अन्यप्रकार नहीं, जैसे कि धूम अग्निको सिद्ध कर देता है । किंतु जो स्वयं सिद्ध नहीं है वह साध्यको सिद्ध नहीं कर सकता है । यदि नहीं सिद्ध किया गया हेतु भी साध्योंको सिद्ध करने लगे तो अतिप्रसंग हो जावेगा । अर्थात स्वरविषाण आदि हेतु भी साध्योंको सिद्ध करने लगेंगे, या चाक्षुषस हेतु भी शब्दको अनित्यत्व सिद्ध कर देवेगा। किंतु यह अन्याय है।
सिद्धमपि।
आप मीमांसकोंके कथनमात्रसे ज्ञापक प्रमाणोंका ने दीखनारूप हेतुको कथञ्चित् थोडी देरके लिए सिद्ध मान भी लेवें तो ( देखिये कितने दोघ आते हैं)
स्वसंबधि यदीदं स्याव्यभिचारि पयोनिधेः ॥
अम्भःकुम्भादिसंख्यानैः सद्भिरज्ञायमानकः ॥ १४ ॥ हम जैन आप मीमांसकोंसे पूंछते हैं कि सर्वज्ञका ज्ञापक प्रमाण केवल आपको ही नहीं प्रतीत होता है ! अथवा सब जीवोंके पास सर्वज्ञका ज्ञापक प्रमाण नहीं है ? यदि केवल आपको अपनी ही आत्मा समवाय सम्बन्धसे रहनेवाले ज्ञापक प्रमाणोंका न दीखनारूप हेतु सर्वज्ञके अभाधका साधक माना जायेगा तो आपका यह हेतु व्यभिचारी हेताभास है, क्योंकि समुद्र के सम्पूर्ण