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________________ १२२ तत्त्वार्थ चिन्तामणिः तुम सपको जानते हो, तभी तो यष्टाको स्वर्गमें पहुंचा देते हो और हे पुत्रेष्टियाग ! तुम भी सबको जानते हो । तभी तो नानायोजनाओंसे पुत्रको पैदा करा देते हो । इसी प्रकार हिंसा, झूठ बोलना, आदिस जन्य पापकर्म भी नरक, तिर्यञ्चों के स्थान और कारणोंको जानते हैं। तभी तो वे जीवोंको उन कुगतियोंमें पहुंचा देते हैं । अनेक बादियोंको इस प्रकार कर्मकी स्तुति करनेवाले वेदके सर्वज्ञ जोधक वाक्यों के अर्थमे जैसे संशय है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष किये विना सूक्ष्म पदार्थोके जाननेमे मी संशय ही रहेगा। उस वेदसे सूक्ष्म आरिके ज्ञान प्रमाणता नहीं आसकती है । सम्भवतः पुण्य पापको कहनेवाले वाक्य भी अर्थवाद यानी स्तुतिवाक्य हों ।। न हेतोः सर्वथैकांतैरनेकांतः कयञ्चन । श्रुतज्ञानाधिगम्यत्वात्तेषां दृष्टष्टबाधनात् ॥ ११ ॥ स्थानत्रयाविसंवादि श्रुतज्ञानं हि वक्ष्यते । तेनाधिगम्यमानत्वं सिद्धं सर्वत्र वस्तुनि ॥ १२ ॥ यदि कोई कह बैठे कि सर्व प्रकारसे कूटस्थ नित्यरूप या क्षणिकत्वरूप ही धर्मके एकांत तथा सर्वथा एक अनेकपनेरूप एकांताभ भी हम मीमांसक और बौद्ध आदिके द्वारा अभिमत होरहे शाखोंके ज्ञानसे जाना गयापनरूप हेतु विद्यमान है, किंतु जैनों के मतानुसार वे असत् एकांत किसी न किसीके प्रत्यक्ष नहीं है । अतः हेतुके रह जानेसे और साध्यके वहां न रहनेसे आपके सर्वसाधक अनुमानमें व्यभिचार दोष हुआ । ऐसा कहनेपर आचार्य कहते हैं कि हमारे अनुमानमें किसी भी प्रकार व्यभिचार नहीं है। क्योंकि आपके माने हुए शास्त्रों के द्वारा जो नित्यत्व आदिक एकांत धर्म पुष्ट किये जाते हैं वे सम्पूर्ण एकांत बिचारे प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणोंसे बाधित हो जाते हैं अतः वे वस्तुभूत पदार्थ नहीं हैं। वास्तवमें सचे श्रुतज्ञानका लक्षण हम आगेके प्रथम यह कहेंगे कि जो सीनों स्थानों में विसंवाद करनेवाला न हो अर्थात् जिसको जाने उसी प्रवृत्ति करे और उसीको प्राप्त करे ऐसे ज्ञानको अविसं गदी ज्ञान कहते हैं । स्वभाव, देश और कालसे व्यवहित होरहे परमाणु आदि पदार्थोंको निदोषरूपसे श्रुतज्ञान जानता है। ऐसे श्रुतज्ञानके द्वारा परोक्षरूपसे जाना गयापन हेतु सम्पूर्ण वस्तुभूत पदार्थे में ठहर रहा सिद्ध हो जाता है। अपरमार्थभूत सर्वथा एकांत धमें हेतु रहता नहीं है। ततः प्रकृतहेतोरव्यभिचारिता पक्षव्यापकता च सामान्यतो बोद्धध्या । इस कारणसे श्रुतज्ञानसे जाना गयापन हेतु व्यभिचारी नहीं है। अब कि सर्वथा एकान्त कोई यस्तुभूत पदार्थ नहीं है तो घोडोंके सींगके समान वे अविसंवादी श्रुतज्ञानसे नहीं जाने जा सकते हैं अतः हेतुके न रहनेसे साध्यके न रहनेपर व्यभिचारी नहीं हुआ। और श्रुतज्ञान द्वारा जानामयापन हेतु
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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