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________________ বৰালিলি ४४३ गुणी, अवयव, आदिकों में गुण, अवयवी आदिकोंकी वृत्ति है और गुणी, क्रियावान् आदिकोंकी तो अपने अधिकरणोंमें वृत्ति है, इस प्रकार समवायसंभवाले गुण, गुणी, अवयव, अक्यमी आदिकोंकी युतसिद्धि क्यों नहीं मानी जाती है ! आपके शास्त्रमै पृथक् पृथक् आश्रयों में आधेय होकर रहनेको युतसिद्धि कहा गया है। उसपर भी उन गुण गुणी आदिकोंकी युतसिद्धिको आप न मानेंगे तो दही और कुण्ड तथा दण्ड और पुरुष आदिकोंको मी वह युतसिद्धि न हो सकेगी क्योंकि उक्त लक्षणके अतिरिक्त युतसिद्धिका दूसरा कोई विशेष लक्षण आपके पास नहीं है और वह लक्षण संयोगी तथा समवायी पदाथमि समानरूपसे घट जाता है। लौकिको देशभेदश्चेद्युतसिद्धिः परस्परम् । प्राप्ता रूपरसादीनामेकत्रायुतसिद्धता ॥ १९ ॥ विभूनां च समस्तानां समवायस्तथा न किम् । कथञ्चिदर्थतादात्म्यान्नाविष्वग्भवनं परम् ॥ २०॥ शास्त्रमें लिखे हुए लक्षणके अनुसार युतसिद्धिको न मानकर यदि साधारण लोकमै प्रसिद्ध होरहे देशभेदको युतसिद्धि मानोगे अर्थात् लोकमै जिन पदार्थाका भिन्न भिन्न देशमै रहना, प्रसिद्ध हो रहा है, उनका परस्परम संयोग माना जावेगा और जिन पदार्थोंका साधारण जनताको मिन्न भिन्न देशों में रहना ज्ञात नहीं होता है, उनका समवाय मानोगे, ऐसा माननेपर सो रूप, रस या ज्ञान, सुख आदि गुणोंकी भी परस्पर ऐसी युतसिद्धि न होकर अयुतसिद्धि हो जाना चाहिए। क्योंकि उक्त गुण भी एक द्रव्यमें रहते हैं। घटमें जहां रूप है उसी स्थल पर रस है और आला जहां ज्ञान है, वहीं पर सुख भी है। अतः भिन्न देश न होनेके कारपा इनकी युतसिद्धि न हुई। सब तो रूप और रसका तथा ज्ञान और सुखका समवाय संबंध हो जाना चाहिये। नैयायिकोंने इनका समदाय संबंध माना नहीं है। किंतु एक अर्थमें दोनोंका समवाय होनेके कारण एकार्थसमवाय रूप परम्परासंबंध माना है। तथा उस प्रकार लक्षण करने पर आत्मा, आकाश, काल और दिशा इन सम्पूर्ण व्यापक द्रव्योंका परस्परमें समवायसंबंध क्यों न हो जावे? क्योंकि जहाँपर आत्मा है, वहींपर कालद्रव्य है और वहींपर आपने दिशा द्रव्य भी माना है। नैयायिकोंने सबका आधार काल माना है और आकाश मी सर्व पदार्थ वृत्त्यनियामक संबंधसे रहते हुए माने हैं। अतः जनताके द्वारा मिन्न भिन्न आश्रयका न प्रतीत होनारूर अयुतसिद्धिका लक्षण यहां घट जाता है। किंतु आपने विभु द्रव्योंका अज (नित्य ) संयोग संबंध माना है। किसी किसीने तो नित्य संयोगको इष्ट नहीं किया है। कारण कि जो पदार्थ पहिले प्राप्त न थे, उनका कारणवश मिल जानेका नाम संयोग है। यह धातिपूर्वक समाप्ति रूप संयोगका लक्षण व्यापक द्रव्यों के संयोग नहीं घटता है। ये तो सर्वदासे ही
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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