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तत्वानिन्सामणिः
शरीर आदिक चैतन्यके निमित्तकारण न होकर यदि उपादान कारण माने जावेगे सब तो उन शरीर, इन्द्रिय तथा विषयों के होनेपर ज्ञानका होना और शरीर आदिकके न होनेपर ज्ञानका न होना बों विज्ञानको इस अन्वयव्यतिरेकमाव होनेका प्रसंग आवेगा किन्तु यहां अवयव्यभिचार और व्यतिरेकव्यभिचार देखा का है। मुनिये, शनियों के व्यापार और अर्थ विना मी विचारस्वरूप अन्तरंग संकल्प विकश्परूप अनेक ज्ञान होते रहते हैं। इस कारण व्यतिरेकम्ममिवार हो जानेसे इस चैतन्यके थे शरीर आदिक उपादान कारण नहीं हो सकते है और यहां अन्वयम्यभिचार भी है । अन्यमनस्क मूछित, या मरे हुए जीवके उन शरीर और इन्द्रियोके होनेपर मी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है । तथा उपादेय अवस्था कार्यस्वरूपसे उपादानका रहना आवश्यक है किन्तु चैतन्यके होनेपर भी ध्यान या विचार की अवस्थामै उपादान माने गये शरीर और इन्द्रियोंका उपादेय परिणामस्वरूप होकर विद्यमान रहना देखा नहीं जाता है। घट अवसाने मिट्टी और कपडेकी दशामें सूत तो देखे जाते हैं
कायश्चेत्कारणं यस्य परिणामविशेषतः। सद्यो मृततनुः कस्मात्तथा नास्थीयतेमुना ।। १२५ ॥ वायुविश्लेषतस्तस्य वैकल्याच्चेन्निबन्धनम् ।
चैतन्यमिति संप्राप्तं तस्य सद्भावभावतः ॥ १२६ ॥
बिस चावकिके मत विशिष्ट मिश्रणरूप परिणतिसे पुक्त शरीरको चैतन्यका उपादान कारण इष्ट किया है यों तो हम पूंछते हैं कि मरनेके कुछ काल पहिले जो शरीर पैतन्यका कारण हो रहा था बह शरीरका विशेष परिणमन मरते समय भी विद्यमान है। अतः शीन मरा हुआ शरीर भी वैसा पूर्वकी मकार इस चैतन्यस्वरूप व्यवस्थितरूपसे परिणति क्यों नहीं करता है। अर्थात् मुर्दाको जीवित हो जाना चाहिये और जीवित होकर उसे बहुत दिनोंतक करना चाहिये। __ यदि आप यों कहेंगे कि मरनेपर प्राणवायु निकल जाती है अतः उस आवश्यक वायुसे रहिस होरहे केवल पार्थिव, जलीय, तैजस विशिष्ट परिणाम न रह सकनेके कारण उस चैतन्यका कारण नहीं होता है। ऐसा कहनेपर तो यों चैतन्यकी वायुको ही उपादानकारणता मले प्रकार मात हुथी क्योंकि उस वायुका सद्भाव होनेपर चैतन्यका अस्तित्व और वायुके न रहनेपर चैतन्मका अभाव आपने अभी मामा है।
सामग्री जनिका नैकं कारणं किंचिदीक्ष्यते। विज्ञाने पिष्टतोयादिर्मदशक्ताक्वेिति चेत् ॥ १२७ ।।