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स्वार्थचिन्तामणिः
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और भी जो चार्वाको आत्माको भिन्न तत्र निषेध करनेके लिये कहा था किक्षित्यादिसमुदायार्थाः शरीरेन्द्रियगोचराः । तेभ्यश्चैतन्यमित्येतन्न परीक्षाक्षमेरितम् ॥ ११० ॥
बृहस्पति ऋषिने चार्वाकदर्शनमें ये तीन सूत्र बनाये हैं- पृथ्वी, अप्, तेज और वायु ये चार तत्त्व हैं। इन चारों तत्त्वोंके समुदायरूप शरीर, इंद्रियां और विषय ये पदार्थ बन जाते हैं तथा उन शरीर, चक्षुरादिक इंद्रिय, और रूप, रस, आदिक विषयोंसे चैतन्य हो जाता है आचार्य कह रहे हैं कि इस प्रकार यों चात्रकों का कथन भी परीक्षा करनेको सहन नहीं कर सकता है । यों प्रेरणा की जा चुकी है ॥
पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तचानि, तत्समुदाये शरीरेन्द्रिय विषयसंज्ञाः तेभ्यचैतन्यमित्येतदपि न परीक्षाक्षमेरितम्, शरीरादीनां चैतन्यव्यञ्जकत्व कारकत्वयोरयोगात् कुतस्तदयोगः १ ।
तीन सूत्र यों हैं कि चावकिमतानुयायी पृथ्वी, अप्, तेज और वायु इस प्रकार चार तत्र मानते हैं । उन तत्वों के योग्यरूपसे मिश्रणात्मक समुदाय होनेपर शरीर, इंद्रियां, और विषय नामके पदार्थ उत्पन्न हो जाते हैं । और उनसे उपयोगात्मक चैतन्य होता है, यों यह का साहसपूर्वक कहना परीक्षा झेलनेको समर्थ नहीं समझा गया है। क्योंकि शरीर, इंद्रिय और विषयोंको चैत्यका प्रकट करनेवाला अभिव्यञ्जक हेतु माननेपर तथा शरीर आदिकको चैतन्यका उत्पादक कारण मानने पर दोनों ही पक्षमें उनसे चैतन्य होने का योग नहीं है ।
चैतन्य होने का उन व्यञ्जक या कारक दोनों पक्षों में कैसे योग नहीं है ! इस प्रश्नका उत्तर स्पष्ट कहते हैं—
व्यञ्जका न हि ते तावञ्चितो नित्यत्वशक्तितः । क्षित्यादितत्ववज्ज्ञातुः कार्यत्वस्थाप्यनिष्ठितः ॥ १११ ॥
- पहिले पक्ष के ग्रहण अनुसार वे शरीर, इन्द्रिय और घट, रूप, रस, आदिक विषय तो तन्यशक्ति के प्रगट करनेवाले निश्चयसे नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर पृथ्वी आदिक तत्वोंके समान ज्ञाता आत्माको मी व्यय रक्षमे नित्यपनेका प्रसंग आता है। अभिव्यक्तिपक्षमें आपने आमाको कार्य भी इष्ट नहीं किया है। तथा च आत्मा भी पृथिवीपरमाणुओंके सदृश एक स्वतन्त्र तत्व सिद्ध होता है ।
नित्यं चैतन्यं शश्वदभिव्यंग्यत्वात् क्षित्यादिवच्ववत, शश्वदभिव्यंग्यं तत्कार्यतानुपगमात् कदाचित्कार्यवोपगमे वाभिव्यक्तिवादविरोधात् ।