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________________ जवानिया : हो जावेगा, ऐसी दशा सुमेरु पर्वत और सरसों भी समान परिमाणवाले हो जायेंगे। किंतु जैसे ऐठके साथ आप बौद्ध अपने संवेदनको सिद्ध कररहे हैं। उसी प्रकार नैयायिक भी अपने अपनदी चाको शिख कर कहता है कि अवषयों में अवयवी एकदेश करके भी नहीं वर्तता है, और न सम्पूर्ण अपने देशों करके रहता है, किंतु रहता ही है तथा परमाणु एकवेव करके दूसरे परमाणुओं के साथ संयुक्त नहीं होता है और न अपने सब अंशों करके संयुक्त होता है, किंतु संयुक्त हो ही जाता है, ऐसे बोलनेवाले नैयायिक भी अपाके खण्डन करनेके योग्य नहीं हो सकते हैं, इस उक्त कथम करके बौद्धोंके धूलमै लठिया. लगनेके समान सांख्योंकी ओरसे आपादन करनेसे नैयायिकोंका उक्त आपादम भी समझ लेना चाहिये । यानी नैयायिक भी बौद्धके पति पोससे अवयवी या स्कंधको सिद्ध कर देवेगा। यदि पुनः क्रमाक्रमव्यतिरिक्तप्रकारासम्भवासतः कार्यकरणादेरयोगादेव सुवाणस्य प्रतिक्षेपः क्रियते तदा स्वपरन्यतिरिक्तप्रकाराभावान्न ततः संवेदन संवेधत एवेत्यप्रविक्षेपाईः सिद्धधेत् । यदि फिर बौद्ध समझकर यों कहे कि सांख्योंकी लपट घों घों नहीं चल सकती है । क्योंकि कम और अक्रमसे अतिरिक्त कार्योंके कर देनेका या पर्यायोंके प्रगट होने माविका दूसरा कोई उपाय नहीं सम्भवता है और नित्य पक्षमें कार्यका बनना या प्रगट होना सिद्ध होता नहीं है, इस कारण वस्तुको सर्वथा नित्य कहनेवाले सांख्यका हम खण्डन करते हैं। तब तो हम भी बौद्धोंके प्रति कह सकते हैं कि संवेदनके जाननेका स्वयं और दूसरे ज्ञापकोंके अतिरिक्त तीसरा कोई उपाय नहीं है । ऐसी दशामें आपका संवेदन भी खण्डन करने योग्य नहीं है, मह सिद्ध नहीं हो सकता है। जब कि आप बौद्ध यों कह रहे हैं कि ज्ञान न तो स्वयं जाना जाता है और न दूसरोंसे जाना जाता है। किंतु है ही। इस प्रकार आपकी पोल नहीं चल सकती है । सैवेदनकी स्वयंसे अति मानिये या दूसरोंसे जप्ति होना मानिये । अन्यथा आपके संवेदनकी सजा उठ जावेगी। सम्वेदनस्य प्रतिक्षेपे सकलशून्यता सर्वस्यानिष्टा स्यादिति चेत्, समानमन्यत्रापि । सौगत बोले कि संवेदनकी सनाका खण्डन करनेपर सो सम्पूर्ण पदायोंका शून्यपना हो अवेगा, जो कि सम्पूर्ण वादी प्रतिवादियोंको इष्ट नहीं है । क्योंकि घट, पट आदिकी तो सयं अपनी सचा ही ज्ञानकी मित्तिपर डटी हुयी है । जब ज्ञान ही नहीं है सो संसारमें कोई पदार्थ ही नहीं है। आचार्य कहते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो यह उक्त कथन दूसरे पक्षमें भी समान है। भावार्थ-~-वस्तुमे कर्तापन, करणफ्नकी प्रधानता और अप्रघानताकी विवक्षा करना भी वस्तुमूत स्वभावोंके अधीन मानना चाहिए। जैसे ज्ञानके मान विना संसारकी व्यवला नहीं हो सकती है, वैसे ही वस्तुओं की अनेक सामर्थ्य माने विना भी विवक्षा और अविवक्षा क्षेना नहीं
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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