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________________ तस्वाचिन्तामणिः . . . .. . ... . . . . . बनता है, जिसका कि होना अत्यावश्यक है। तथा अवयवीके वर्तने और परमाणुओंसे स्कन्ध बन जानेमें मी यही श्रेष्ठ उपाय लग बैठेगा । यो अवयवी और स्कन्धका खण्डन कर देनेपर भी जग प्रसिद्ध शरीर, खाद्य, फल, गृह, पृथ्वी, सूर्य, नदी, किला, पर्वत आदि पदार्थोंका शून्यपन छा जायगा, जो कि सबको अभीष्ट नहीं पड़ेगा। तता स्वयं संवेद्यस्य दृश्यस्य पा रूपादः परमार्थसत्यमुपयवाभियतस्याप्यपमियारिणस्तन मविक्षेप्तव्यम्, सर्वथा विशेषाभावात्, परमार्थसत्त्वे च स्वाभिप्रेतार्थस्य सुनयविपयस्य सत्संप्राप्त्यसंप्रासी वस्तुरूपे सिद्धे तहेतुकयोश्च प्रधानेतरभावयोवस्तुसामर्थ्य सम्भूतउनुस्खं नासिई यतस्तयोवास्तवत्वं न साधयेदिति । ___ उस कारण स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे जाने गये सम्वेदनके विषयभूत स्वलक्षण अथवा निर्विकल्पक दर्शन के विषय रूप, रस, आदिककी परमार्थरूपसे सत्ताको स्वीकार करोगे, तब तो भापके द्वारा समीचीन और म्यभिचार रहित माने गये अपने उस अभीष्ट पदार्थकी भी वस्तुतः सनाका खण्डन नहीं करना चाहिये । सभी प्रकारसे आपके और हमारे कपनमें कोई अंतर नहीं है । भावार्थआपने निर्विकल्पक संवेदन और उसके विषयभूत स्वलक्षण रूप, रस, भाविकको जैसे इष्ट किया है, वैसे ही इष्टता और भविष्टताके प्रयोजक वस्तुकी मूलभूत सामोको हम भी मानते हैं। आपको मी भिन्न अनेक कार्योंके अनुरोषसे वे स्वभाव मानने पडेंगे । जप कि समीचीन नयके द्वारा जाने हुए अपने अभीष्ट अर्थकी परमार्थ. सपसे सण सिद्ध हो गयी, तब ऐसा होनेपर उस अपने अभीष्टकी समीचीन प्राप्ति और अमाति मी वस्तुस्वरूप बन गयी और अब यह पाति और अपाप्ति वस्तुस्वरूप सिद्ध हो गयी, सब उनके कारण माने गये प्रधानपन और अप्रधानपनके शरीरको भी वस्तुके स्वमावोंसे उत्पन्न होनापन असिद्ध नहीं हुआ, जिस कारणसे कि उन पपानसा और अपधानताको वास्तविकपना सिद्ध न करा सके । अर्थात् वस्तुके आत्मभूत स्वभावोसे किसी धर्मका प्रधानपन और अन्य धर्मका अपधानपन उत्पन्न हुआ है। अतः वे प्रधानता और अप्रधानता कसित नहीं हैं। किंतु वास्तविक है। यहांतक यह तत्व पुष्ट कर दिया है। तत्र विवक्षा चाविषक्षा च न निर्विषया येन तदशादेका वस्तुन्यनेककारकात्मकत्व न व्यवतिष्ठेत । उस वस्तुमे कापन या करणपनकी विवक्षा होना अथवा अविवक्षा होना वस्तुभूतसामर्थको अवलम्ब लेकर है । अपने विषयको नहीं स्पर्श करती हुयीं यों ही विना कारण विवक्षा या अविवक्षा नहीं हो गयी हैं, जिससे कि उस वस्तुमूत सामर्थ्यके वशसे अनेक कारकस्वरूपपना एक वरखम व्यवस्थित न होता । अर्थात् वस्तुको भिन्न भिन्न अनेक शक्तियोंके बलसे एकमे अनेक कारकपन बन जाता है।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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