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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः प्रति कहते है कि स्वभावसे जडस्वरूप आत्माको माननेवाले जड नैयायिकोंने उस अपनी द्रव्य स्वरूप आत्माको सर्वथा भिन्न होरही गुणस्वरूप बुद्धिके संसर्गसे कैसे चेतन मान रखा है ! बताओ। प्रधानाश्रितं ज्ञानं नात्मनो ज्ञत्वसाधनं ततो भिन्नाश्रयत्वात्पुरुषान्तरसंसर्गिज्ञानपदिति चेत्, तर्हि न ज्ञानमीश्वरस्य बत्वसाधनं ततो भिन्नपदार्थत्वादनीश्वरज्ञानवदिति किं नानुमन्यसे ? ____ कपिलमसका खण्डन करने के लिये नैयायिकका यह अनुमान है कि " आश्रय रूप प्रकृतिका आधेय होकर रहता हुआ विज्ञानरूप परिणाम तो आत्माका ज्ञातापन सिद्ध नहीं कर सकता है। क्योंकि वह ज्ञान उस आत्मासे सर्वथा भिन्न होरही प्रकृतिका आश्रित धर्म है। जैसे कि दूसरे पुरुष यानी देवदत्तमें रहनेवाला सिद्धांतविषयका ज्ञान जिनदत्त सम्बन्ध नहीं कर सकता है और जिनदत्तको स्वयं अपने रूपसे सिद्धांतज्ञानी भी नहीं बना सकता है।" । आचार्य कहते हैं कि यदि आप नैयायिक ऐसा कहोगे तब तो हम भी कपिलमतकी तरफसे कह सकते हैं कि "ज्ञान भी ईश्वर गो झार सिद्ध नहीं क संवा है, पयोंकि यह ज्ञानगुण उस ईश्वरसे सर्वथा भिन्न पदार्थ है। जैसे कि ईश्वरसे न्यारे अन्य साधारण जीवका ज्ञान सर्वथा भिन्न होने के कारण ईश्वरको अपने समवायसे अल्पज्ञानी नहीं बना पाता है "। इस बातको तुम ही क्यों नहीं मानते हो । कुत्सित हटको छोड देना चाहिये। ज्ञानाश्रयत्वतो वेधा नित्यं ज्ञो यदि कथ्यते । तदेव किं कृतं तस्य ततो भेदेपि तत्त्वतः ॥ ६९ ॥ यदि नैयायिक यह कहेंगे कि ईश्वर अनादिकालसे ज्ञानका आधार होनेसे नित्यज्ञाता है, किसी समय बाहिरसे ज्ञान आवे फिर ज्ञानसमचायी मने ऐसा नहीं है । तो हम जैन आपसे पूछते. है कि वास्तवम उस ज्ञानसे सर्वथा भिन्न होने पर भी उस ईश्वरके वह नित्य-ज्ञातापन आपने किस तरहसे हुआ सिद्ध किया है ! इसका उत्तर दीजिये ! - स्रष्टा ज्ञो नित्यं ज्ञानाश्रयत्वात् । यस्तु न ज्ञः स न नित्यं झानाथयो यथा व्योमादिः, न च तथा स्रष्टा ततो नित्यं ज्ञ इति चेत् । किं कृतं तदा सानाश्रयत्वं ज्ञानाद्भेदेऽपि वस्तुत इति चिन्त्यम् । उक्त कारिकाकी व्याख्या करते हैं । पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, शरीर, इंद्रिय आदिका बनाने घाला ईश्वर, (पक्ष ) सर्व पदार्थोंका ज्ञाता है ( साध्य ) क्योंकि यह अनादिसे अनन्त काल तक नित्य ही ज्ञानका अधिकरण है। (हेतु ) जो ज्ञाता स्वरूप नहीं है वह सर्वदासे ज्ञानका आधार
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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